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________________ तत्त्वानुशासन स्थापना ध्येय का स्वरूप जिनेन्द्रप्रतिबिम्बानि कृत्रिमाण्यकृतानि च । यथोक्तान्यागमे तानि तथा ध्यायेदशङ्कितम् ॥ १०९ ॥ अर्थ-जैसे आगम में कहे गये हैं, उन कृत्रिम ( बनाई गई ) एवं अकृत्रिम ( नहीं बनाई गई ) जिनेन्द्र भगवान् के प्रतिबिम्बों का सन्देहरहित होकर ध्यान करना स्थापना ध्येय का स्वरूप है। विशेष-स्थापना दो प्रकार की होती हैं-सद्भावस्थापना दूसरी असद्भावस्थापना ( श्लो० वा० ) अथवा सायार इयर ठवणा अर्थात् साकार व अनाकार के भेद से स्थापना के दो प्रकार (न० च० वृ० २७३)। वास्तविक पर्याय से परिणत इन्द्र आदि के समान बनी हुई काष्ठ आदि की प्रतिमा में आरोपे हए उन इन्द्रादि की स्थापना करना “सद्भावस्थापना" है क्योंकि किसी अपेक्षा से इन्द्रादि का सादृश्य यहाँ विद्यमान है। तभी तो मुख्य पदार्थ को जीव की तिस प्रतिमा के अनुसार सादृश्य से 'यह वही है' ऐसी बद्धि हो जाती है। यथा पार्श्वनाथ की वीतराग प्रतिमा को देखकर यह वही पार्श्वनाथ हैं ऐसी बुद्धि हो जाती है । मुख्य आकारों से शुन्य केवल वस्तु में "यह वही है" ऐसी स्थापना कर लेना असद्भाव स्थापना है, क्योंकि मुख्य पदार्थों को देखने वाले जीव की दूसरों के उपदेश से ही "यह वही है" ऐसा समीचीन ज्ञान होता है, परोपदेश के बिना नहीं। यथा-सुपारी, चावल आदि में भगवान् की स्थापना करना अथवा सतरंज की गोटों में हाथी-घोड़ा आदि को स्थापना करना। जिनेन्द्रदेव को कृत्रिम-अकृत्रिम प्रतिमाएँ सद्भाव स्थापना हैं। ये ध्याता के ध्यान करने योग्य हैं। इसोलिये इन्हें स्थापना ध्येय कहते हैं। यथा-सर्व अकृत्रिम जिनबिम्बों में अरहन्त की स्थापना है। उन्हें साक्षात् अर्हन्तमान ध्याता उनके महागुणों का चिन्तन कर अपने मन को एकाग्रता की ओर ले जाता है। "कोटि शशि भानु दुति तेज छिप जात है, महावैराग्य परिणाम ठहरात है, वयन नहीं कहै लखि होत सम्यक् धरं" इसी प्रकार सर्व कृत्रिम जिनबिम्ब भी स्थापना ध्येय है। प्रतिदिन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001848
Book TitleTattvanushasan
Original Sutra AuthorNagsen
AuthorBharatsagar Maharaj
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1993
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size12 MB
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