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________________ ७२) सिद्धान्तसारः (४. २७ तस्मिन्नाकस्मिके ताद्धिसाहेतुर्न हिसकः । प्रवृत्तिस्तु कथं मार्गे तत्र मार्गोऽपि वा कथम् ॥ २७ अन्यव्यावृत्तिरूपं स्याज्जगत्सर्वमिदं यदि । जीवोऽप्यजीव एवास्य का कथा धर्मकर्मणि ॥ २८ जगच्छून्यमिदं सर्व धर्मो हिंसाविवजितः । मूढात्मानो वदन्त्येतत्तथ्यं ताथागताः कथम् ॥ २९ . .......... विनाश पर्यायान्तरसे परिणत न होकर निरन्वय विनाशरूप होनेसे पूर्वकृत पापपुण्योंकाभी निरन्वय नाश होगा। तथा जैसे निरन्वय विनाश होता है, वैसी निरन्वय उत्पत्तिभी होगी। तो पाप-पुण्योंकी व्यवस्था हिंस्य, हिंसक, हिंसा और हिंसाफल ये बातें अस्थिर क्षणिक पदार्थों में नहीं संभवती । इसलिये बौद्धके मतमें कारणविनाही कार्यतत्त्वकी उत्पत्ति माननी होगी ॥२६॥ जब आत्मतत्व अकारण उत्पन्न होगा, तो हिंसक मनुष्य हिंसा कार्यका कर्ता है ऐसा मानना उचित न होगा। जैसे हिंसा करनेवाला कारणके बिनाही उत्पन्न होता है वैसे हिंसाभी कारणके बिनाही उत्पन्न होगी। तथा हिंसाका हिंसकसे कुछभी संबंध न होनेसे हिंसकको पापी अथवा निंद्य मानना अविचाररम्य होगा। ऐसी परिस्थितिमें मोक्षमार्गमें प्रवृत्ति कैसे होगी ? और मार्गकीभी स्थिति नहीं होगी। मार्ग किसको कहना यह प्रश्नभी अनुत्तरही रहेगा। तात्पर्य यह है, कि निरन्वयविनाश और निरन्वय उत्पत्ति मानना युक्तिसंगत नहीं है ॥ २७॥ __ निरन्वय उत्पत्ति होनेसे जीव जीवत्व धारण करकेही उत्पन्न होगा यह नियम नहीं बनेगा। जीव अपना जीवत्व छोडकर अजीव होगा। अजीव अपना अचेतनपना छोडकर जीव होगा। क्योंकि नियामकता जब पदार्थमें नही रहती तब जीवका परिणमन जीवरूपही होना, अजीवका परिणमन अजीव रूपही होना, ऐसी सम्बद्धता उनमें कहांसे रहेगी ? अतः जीवाजीवादिक तत्त्व सान्वय मानने चाहिये ॥२८॥ ताथागत बौद्ध सर्व जगत् शून्य हैं और धर्म हिंसाविवर्जित है, अर्थात् अहिंसा धर्म है ऐसा कहते हैं। आचार्य इसके ऊपर ऐसा कहते हैं, कि यह उनका कहना मूल्के समान है। जगत् यदि शून्य है, तो धर्म नामक वस्तुभी नहीं है, क्यों कि जगत् जो धर्मी है, वहभी यदि शून्य है, तो उसका स्वभाव अहिंसा धर्म है ऐसा कहना कैसे सिद्ध होगा? वंध्याका लडका मृगतृष्णामें स्नान करता है, ऐसा कहने के समान यह बौद्धका विवेचन है । इसलिये ऐसा कथन करनेवाले बौद्ध ताथागत-सत्यज्ञानवाले बुद्धके अनुयायी कैसे हो सकते हैं ? स्पष्टीकरण- जगत् शून्य है ऐसा कहना योग्य नहीं । यद्यपि स्वप्न इन्द्रजाल आदिकमें पदार्थोंका ज्ञान उनके अभावमेंभी होता है; अतः जगत् शून्य है ऐसा कहोगे तो ज्ञान मिथ्या होनेपर पदार्थका अभाव मानना योग्य होगा परंतु सर्व ज्ञान मिथ्या नहीं होते । मृगतृष्णामें जलका ज्ञान मिथ्या होनेसे तृष्णा हरण करनेवाले सच्चे जलका ज्ञानभी मिथ्या मानना कैसे योग्य होगा ? स्वप्नमें होनेवाले ज्ञान बाह्य पदार्थ रहित होते हैं परंतु जाग्रदवस्थामें होनेवाला ज्ञान स्थिर, स्थूल, साधारण स्तम्भकुम्भादि पदार्थोको प्रकाशित करनेवाला होता है। यह प्रत्यक्षसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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