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-२. २०३)
सिद्धान्तसारः
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इच्छाया' वशतो नित्यं युक्तायुक्ताविवेचकः । मद्यपेनेव गृण्हाति पदार्थांस्तेन दुष्यति ॥ २०१ आ परोक्षमित्येव प्रत्यक्षमपरं त्रयम् । सापेक्षेणानपेक्षेण भावेनैतन्निगद्यते ॥ २०२ सम्यग्ज्ञानप्रदीपोज्ज्वलबहलशिखारश्मि जालैविशालैः ।
अज्ञानान्धान्धकारं निजहृदयगुहाक्रीडलीनं निरस्य ॥
ये वर्तन्ते त एते जगदखिलमिदं कर्मणा क्लिश्यमानम् ।
जैसे मद्यपान करनेवाला मनुष्य माताको भार्या और भार्याको माता मानता है, कभी यदृच्छा से भार्याको भार्या और माताको माताभी मानता है, तो भी उसका मानना प्रमाण नहीं है । इसी प्रकार मत्यादिक ज्ञानोंको रूपादि पदार्थोंमें मिथ्यात्वसे विपरीतपना प्राप्त होता है । मिथ्यादर्शन परिणाम जब आत्मामें प्रगट होता है तब रूपादिक ज्ञान होनेपरभी उसमें कारण-विपर्यास, भेदाभेदविपर्यास और स्वरूपविपर्यास उत्पन्न करता है ।। १९९-२०१ ॥
पश्यन्तः स्वस्य सिद्धेर्दधति पटुधियः कार्यमन्तः स्फुरन्तः ॥ २०३
( प्रत्यक्ष और परोक्षज्ञान ) - पहिले मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्षज्ञान है, और अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान तथा केवलज्ञान ये तीन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं । मतिज्ञान और श्रुतज्ञान इंद्रिय और मनकी अपेक्षा लेकर पदार्थको जानते हैं । अतः वे दोनों ज्ञान सापेक्ष होनेसे परोक्ष हैं । उनकी अपेक्षा विना वे पदार्थों को नहीं जान सकते हैं । इंद्रियांभी प्रकाश आदिकी अपेक्षाबिना मतिज्ञान श्रुतज्ञानको उत्पन्न नहीं करती है । अर्थात् आद्य दो ज्ञान परावलम्बी होनेसे परोक्ष हैं और अवधि आदिक तीन ज्ञान इन्द्रिय, मन, पदार्थ आदिकी अपेक्षाके बिनाही पदार्थोंको सीधा जाननेंमें समर्थ हैं, इसलिये वे प्रत्यक्ष हैं । जैसे लंगडा मनुष्य हाथमें लाठी लेकर उसके सहायता से चलता है यद्यपि उसमें जानेका सामर्थ्य है परंतु लाठीके बिना वह चल नहीं सकता । उसके गमन में लाठीका आश्रय प्रधान है, वैसे मतिश्रुत ज्ञानको इन्द्रियांदिकी अपेक्षा लेनी पडती है । अवधिज्ञानादि तीन ज्ञानोंको वह अपेक्षा नहीं रहती है । अतः वे प्रत्यक्ष हैं ऐसा समझना चाहिये ॥ २०२ ॥
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( सम्यग्ज्ञानीकी महिमा । ) - सम्यग्ज्ञानरूपी प्रदीपकी उज्ज्वल और विपुल ऐसी जो शिखा उसके विशाल किरणसमूहोंसे विद्वान् लोग अपनी हृदय गुहाके मध्यभाग में ठहरे हुए अज्ञानरूपी सघन अंधकारको निकालकर शान्ततासे रहते हैं । तथा कर्मसे पीडित होनेवाले इस संपूर्ण जगतको देखते हुए, तथा अपनी आत्मा में स्फुरायमान होते हुए, ज्ञानसे वृद्धिंगत होते हुए सिद्धिका कार्यरूप सुख धारण करते हैं । अर्थात् उनका सम्यग्ज्ञान बढनेसे वे मुक्तिसुखका अनुभव लेते हैं ॥ २०३ ॥
१ आ. यदृच्छा
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२ आ. दूषितः
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