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________________ ४६ ) सिद्धान्तसारः ( २. १९८ तस्यानन्तविभागो यः स मनःपर्ययस्य च । समस्तद्रव्यपर्यायविषयं केवलं मतम् ॥ १९८ मतिज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानमित्यपि । अज्ञानानि प्रजायन्ते मिथ्यात्वानुगतानि च ॥ १९९ सरजस्कटुकालाबुगतदुग्धं यथा भवेत् । विपर्यस्तं तथा ज्ञानं मिथ्यात्वेनोपजायते ॥ २०० क्षयोपशमसे अवग्रहादिरूप उपयोग धर्मादि द्रव्योंमें प्रथमत: उत्पन्न होता है । इसके अनन्तर धर्मादिद्रव्योंमें श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है । इसलिये मति और श्रुतज्ञानके सर्व द्रव्य अपने अपने अल्पपर्यायोंके साथ विषय होते हैं ऐसा आचार्यका कहना अयोग्य नहीं है । अवधिज्ञान विकल प्रत्यक्ष है और इंद्रिय, मनकी अपेक्षा छोडकर आत्मामें अवधिज्ञानावरण क्षयोपशमसे होता है। उसका विषय रूपिद्रव्य और उसके स्वयोग्य-पर्याय विषय है, रूपिद्रव्योंके समस्त पर्याय अवधिज्ञानके विषय नहीं होते हैं । रूपिशब्दसे पुद्गलद्रव्य ग्रहण किया जाता है, जो कि स्पर्श, रस, गंधवर्णसे युक्त होता है। संसार अवस्थामें जीवको पुद्गलद्रव्यका संबंध होनेसे वहभी रूपी माना जाता है । इसलिये रूपियोंमें अर्थात् पुद्गलोंमें और जीवपर्याय-स्वरूप जो औदयिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक भाव है उनमें अवधिज्ञान उत्पन्न होता है। क्योंकि ये जीवपर्याय रूपिद्रव्यके संबंधसे उत्पन्न हुए हैं। परंतु क्षायिक पर्याय और पारिणामिक पर्याय जीवके रूपिद्रव्यके संबंधसे विना उत्पन्न होनेसे उनमें अवधिज्ञान प्रवृत्त नहीं होता है। वैसे धर्मास्तिकायादिकोंमेंभी रूपिद्रव्यका संबंध नहीं होनेसे प्रवृत्त नहीं होता है ऐसा समझना चाहिये ॥ १९७॥ (मनःपर्यय और केवलज्ञानका विषय ।)- पहले जो सर्वावधिज्ञानका विषय कहा है, उसके अनंतभाग करके उसके एक भागमें मनःपर्यय प्रवत्त होता है। केवलज्ञान संपर्ण जीवादिकषड्द्रव्य और उनके संपूर्ण पर्याय त्रिकालके अनन्तानंत पर्याय जानने में समर्थ है। विशेषार्थ-ऐसा द्रव्य वा पर्याय नहीं है, जो कि केवलज्ञानका विषय नहीं हुआ है । इस केवलज्ञानका माहात्म्य अपरिमित है । मत्यादिक चार ज्ञान क्षायोपशमिक हैं परंतु केवलज्ञान क्षायिक होनेसे पूर्ण निर्मल और ज्ञानावरणका पूर्ण नाश होनेसे उत्पन्न हुआ है। यह ज्ञान अनंत, एक असहाय अद्वितीय है। त्रिकाल के संपूर्ण अर्थ व उनके संपूर्ण पर्याय इसका विषय हैं तथा सतत संपूर्ण सुखका स्थान है ॥ १९८ ॥ (मत्यादिक ज्ञान और कुज्ञान हैं।)- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञानभी जब मिथ्यादर्शनके साथ संबद्ध होते हैं तब अज्ञान होते हैं। जैसे रजके साथ कटुतुंबी में मधुर दुग्ध रखनेसे वह दुग्ध कटुक होता है, वैसे ये तीन ज्ञान मिथ्यात्वके संबंधसे अज्ञान स्वरूप हो जाते हैं, विपर्यस्त होते हैं । मिथ्यादृष्टि इच्छाके वश होकर पदार्थको जानते हैं। किस अपेक्षासे पदार्थ नित्य माना जाता है और किस अपेक्षासे वह अनित्य माना जाता है इसकी विवेचकता मिथ्यादृष्टियोंमें नहीं रहती है, वे एकान्तपनेसे वस्तुके स्वरूप मानते हैं और कभी विपरीतभी मानने लगते हैं। तथा सत्पदार्थको सत् और असत्पदार्थको असत्भी मानने लगते हैं। परंतु उनका वह मानना अप्रमाण है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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