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________________ -२. १७६ ) सिद्धान्तसार: (४१ ॥ १७२ भास्करस्य प्रकाशो वा गच्छन्तमनुगच्छति । अनुगामी स विज्ञेयः परो यो नानुगच्छति ॥ १७० काष्ठनिर्मन्थजो वह्निः शुष्कपत्रगतः पुनः । समिद्धेन्धनमासाद्य प्रवृद्धो जायते पुनः ॥ १७१ तथा जातोऽवधिः पूतोऽवधिज्ञानावृतिक्षयात् । वर्धते वर्धमानोऽसौ वर्धमाननिबन्धतः ' सम्यग्दर्शन सज्ज्ञान सच्चारित्रविशुद्धितः । आ असंख्येयलोकेऽपि वृद्धिमान् वर्धमानकः ॥ १७३ संक्लिष्टपरिणामेन शुद्धदृष्ट्यादिहानितः । अङगुलासंख्य भागोऽयं हीयमानः सहीनकः ॥ १७४ समुत्पन्नप्रमाणाद्यो हीयते नापि वर्धते । भवक्षयावधिः शुद्धो लिंगवत्स त्ववस्थितः ।। १७५ चीयतेऽपचयं याति यश्चोत्पन्नस्तथाविधात् । सम्यग्रत्नत्रयाद्वायु प्रेरितोमिसमूहवत् ॥ १७६ ( अनुगामी और अननुगामी देशावधिज्ञान । ) - सूर्यका प्रकाश जैसे सूर्य के साथ जाता है वैसे जो अवधिज्ञान एकक्षेत्र से अन्यक्षेत्रमें, एकभवसे अन्य भवमें आत्माके साथ जाता है उसे अनुगामी अवधिज्ञान कहते हैं । जो अवधिज्ञान आत्माके साथ क्षेत्रान्तरमें और भवान्तरमें नहीं जाता है उसे अननुगामी देशावधिज्ञान कहते हैं । तात्पर्य- जैसे मूर्ख मनुष्यको प्रश्न पूछनेपर उसका उत्तर नहीं मिलता है वैसे जो अवधिज्ञान स्वस्थानमें और पूर्वभवमेंही रहता है, स्थानांतर और भवान्तर में नहीं जाता है उसे अननुगामी कहते हैं ।। १७० ।। ( वर्धमान देशावधिज्ञान । ) - अरणी नामक दो लकडियोंको एक दूसरीपर घिसने से उत्पन्न हुआ और शुष्क पत्रोंके संयोगसे वृद्धिंगत हुआ तथा लकडियोंसे भडकता हुआ अग्नि खूब बढ़ता है वैसे अवधिज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होनेसे जो पवित्र अवधिज्ञान उसके कारणोंके वृद्धिगत होनेसे बढता है उसको वर्धमान अवधिज्ञान कहते हैं । यह अवधिज्ञान सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी विशुद्धिवृद्धि होनेसे बढते बढते असंख्यात लोकतक बढता है ।। १७१ - १७२ । ( हीयमान अवधिज्ञान । ) - जब संक्लेश परिणामसे निर्मल सम्यग्दर्शनादि गुणोंकी हानि होती जाती है, तब जो अवधिज्ञानभी सम्यग्दर्शनादिकोंके साथ कम कम होता हुआ अंगुलके असंख्यात भागपर्यन्त घटता है, उसे हीयमान अवधिज्ञान कहते हैं ।। १७४ ।। ( अवस्थित अवधिज्ञान । ) - जो अवधिज्ञान जितने प्रमाणसे उत्पन्न हुआ है उससे कभी नहीं होता और बढताभी नहीं । जितना उत्पन्न हुआ है उतनाही रहता । उसे अवस्थित अवधिज्ञान कहते हैं । वह शरीर पर उत्पन्न हुए तिलमाषादि चिन्हों के समान भवक्षय होनेतक हानिवृद्धि रहित एकरूप रहता है । उसे अवस्थित अवधिज्ञान कहते हैं ।। १७५ ।। ( अनवस्थित अवधिज्ञान । ) - सम्यग्रत्नत्रय बढनेसे जो बढता है और कम होने से कम होता है, वह अवधिज्ञान अनवस्थित है । वायुसे प्रेरित होनेसे लहरीसमूह जैसे हीनाधिक होता है १ आ. निवेदितः । २ आ. लोकेभ्यो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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