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३८)
सिद्धान्तसारः
(२. १६०
संख्यातानेकसंघातप्रमाणं प्रतिपत्तिकम् । अनुयोगावधिः पूतस्तत्समासो निगद्यते ॥ १६० अनुयोगो मतस्तावत्तत्संख्याप्रतिपत्तिकः । अनुयोगसमासस्तु यावत्प्राभृतप्राभृतम् ॥ १६१ सुसंख्यातानुयोगैस्तु प्राभृतं प्राभृतं मतम् । प्राभृतप्राभृतादूज़ समासः प्राभृतावधि ॥ १६२ प्राभृतप्राभूतैस्तावच्चतुर्विशतिभिः परम् । प्राभृतं वस्तुमर्यादा' समासोऽस्य निगद्यते ॥ १६३
विकल्प होते हैं वे सब संघातसमास ज्ञानके भेद होते हैं। तात्पर्य-यह संघात नामक श्रुतज्ञान चार गतिमेंसे एक गतिके स्वरूपका प्रतिपादन करनेवाले अपुनरुक्त मध्यम पदोंका समूह रूप हैं। एक पदके ऊपर क्रमसे अक्षरोंकी वृद्धि होते होते संख्यात हजार पदोंकी वृद्धि होनेपर संघात ज्ञान उत्पन्न होता है ॥ १५९॥
(प्रतिपत्ति और प्रतिपत्ति समास श्रुतज्ञान)- संघातज्ञानके ऊपर अनेक संघातश्रुतज्ञानोंकी वृद्धि होनेपर प्रतिपत्तिक श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है । और अनुयोग ज्ञानकी उत्पत्ति जहांसे होती है, उससे पूर्वतक होनेवाले जितने ज्ञान विकल्प हैं, वे सर्व प्रतिपत्तिसमास श्रुतज्ञान समझने चाहिये । भावार्थ-चार गतियोंमेंसे एक गतिका निरूपण करनेवाले संघात श्रुतज्ञानके ऊपर पूर्वकी तरह क्रमसे एक एक अक्षरकी वृद्धि होते होते जब संख्यात हजार संघातकी वृद्धि हो जाय तब एक प्रतिपत्ति श्रुतज्ञान होता है । संघात और प्रतिपत्ति श्रुतज्ञानके मध्यमें जितने ज्ञानके विकल्प होते हैं उतनेही संघात समासके भेद होते हैं । यह प्रतिपत्तिक ज्ञान नरकादिक चार गतियोंका विस्तृत स्वरूप जाननेवाला है ॥ १६० ।।
(अनुयोग और अनुयोगसमास)- प्रतिपत्तिक ज्ञानके ऊपर पुनः संख्यातों प्रतिपत्तिक ज्ञानकी वृद्धि होनी चाहिये अर्थात् प्रतिपत्तिक ज्ञानके ऊपर पूर्वकी तरह एक एक अक्षरकी वृद्धि होते होते जब संख्यात हजार प्रतिपत्तियोंकी वृद्धि होती है, तब एक अनुयोग श्रुतज्ञान होता है। इसके अनंतर और प्राभूतप्राभूतज्ञानके पूर्व जितने अनुयोग ज्ञानके विकल्प होते हैं उसे अनयोग समास कहते हैं । इस अनुयोग श्रुतज्ञानके द्वारा चौदह मार्गणाओंका विस्तृत स्वरूप जाना जाता है ॥ १६१ ॥
(प्राभृतप्राभृतश्रुत तथा प्राभृतप्राभृतसमास ।)- संख्यात अनुयोग होनेपर प्राभृतप्राभूतश्रुतज्ञानकी उत्पत्ति होती है। प्राभृतप्राभृतके ऊपर और प्राभृतश्रुतके पूर्व में जो ज्ञानविकल्प होते हैं वे सब प्राभृतप्राभृतसमास कहे जाते हैं । तात्पर्य-चौदह मार्गणाओंका निरूपण करनेवाले अनुयोग ज्ञानके ऊपर पूर्वोक्त क्रमानुसार एक एक अक्षरकी वृद्धि होते होते जब चतुरादि अनुयोगोकी वृद्धि हो जाय तब प्राभृतप्राभृतका श्रुतज्ञान होता है ॥ १६२ ॥
( प्राभूत और प्राभृतसमास श्रुतज्ञान )- प्राभृतप्राभूत ज्ञानके ऊपर पूर्वोक्त क्रमसे एक एक अक्षरोंकी वृद्धि होते होते जब चौबीस प्राभृतप्राभृतोंकी वृद्धि होती है तब एक प्राभृत श्रुतज्ञान होता है। प्राभृतश्रुतके ऊपर और वस्तुज्ञानके पूर्व में जो जो ज्ञानविकल्प होते हैं उसे
१ आ. मर्यादः
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