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________________ -१. ९०) सिद्धान्तसारः विज्ञायेति महादोषान्देवतागमलिङ्गिनाम् । नापलापं प्रजल्पन्ति मनागपि विपश्चितः ॥ ८६ षट्स्वधोभूमिभागेषु भावनव्यन्तरेषु च । ज्योतिर्नपुंसकस्त्रीषु सदृष्टिर्नैव जायते ॥ ८७ मिथ्यात्वकारणेष्वेषु तिर्यगादिषु जातु' न । उत्पद्यते च सदृष्टिबंद्धायुश्चेन्न तिष्ठति ॥ ८८ मिथ्यात्वान्धतमो घोरं हत्वा सम्यक्त्वभानुना। स्वमार्गे गच्छतां प्राप्तिः स्वसिद्धिनिलये' सताम् ॥ ८९ निरयनगरावासायासप्रकाशपरम्परम्परा - परिचयपरां वृत्ति हत्वा नरो निलये कृतः । बहुगुणगणरन्तःस्फूर्जप्रबन्धपटीयसीम् । नटयति पुरः सिद्धि शुद्धः सुदृष्टिविभूषितः ॥ ९० दोषग्रहणका फल जानकर जिनदेव, जिनागम तथा जैनमुनि इनके असत्य दोषोंका अल्पभी वर्णन विद्वान् नहीं करते ।। ८६ ।। (सम्यग्दृष्टि कहां उत्पन्न नहीं होते) पहला नरक छोडकर सम्यग्दृष्टि जीव शर्करा प्रभादि महातमःप्रभान्त छह नरकभूमियोंमें नहीं जन्मते हैं। भवनवासी, व्यन्तर, तथा ज्योतिष्क देवोंमें सम्यग्दृष्टि जन्मग्रहण नहीं करता तथा नपुंसक और स्त्रियोंमें वह उत्पन्न नहीं होता। तात्पर्य-जिसको नरकायुका बंध होनेपर सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता वह जीव पहले नरकमेंही उत्पन्न होता हैं । देवायुका बन्ध होनेपर सम्यग्दर्शन जिसको प्राप्त हुआ हैं वह जीव सौधर्मादि स्वर्गोमें महद्धिक देव होता है ।। ८७ ।। जिनको मिथ्यात्व कारण है ऐसे एकेन्द्रिय विकलत्रयमें सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होते। तिर्यगायुका बंध होनेपर सम्यग्दर्शन जिसको प्राप्त हुआ हैं ऐसा मनुष्य भोगभूमीका पुल्लिगी तिर्यंच होकर जन्म लेता है । तथा मनुष्यायुका बंध होनेपर जिसे सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ ऐसा कर्मभूमिज मनुष्य अथवा पंचेन्द्रिय संज्ञी तिर्यंच भोगभूमीमें पुरुष होकर उत्पन्न होता है। स्त्रीपर्यायमें उसकी उत्पत्ति नहीं होती ।। ८८ ॥ सम्यक्त्वरूपी सूर्यके द्वारा मिथ्यात्वरूप गाढ अंधकारका नाश कर मोक्षमार्गमें जानेवाले महापुरुषोंको आत्मसिद्धिका घर ऐसा जो मोक्ष उसकी प्राप्ति होती है ।। ८९ ॥ (शद्ध सम्यग्दष्टिके आगे मोक्षलक्ष्मी नाचती है) निर्मल परिणामवाला तथा सम्यग्दर्शन भूषित पुरुष नरक-नगरमें निवास करनेसे उत्पन्न हुई खेदकी प्रकाश-परम्पराके परिचयकी प्रवृत्तिको नष्ट कर तथा स्वर्गमें रहकर अनेकगुणसमूहोंसे अन्तःकरणमें वृद्धिंगत हुआ जो परिचय उससे अतिशय चतुर ऐसी सिद्धि-लक्ष्मीको अपने आगे नचाता है ॥ ९० ॥ १ आ. वा पुनः २ आ. सुमार्गे ३ आ. निलयीकृतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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