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सिद्धान्तसारः
(१. ७९
द्रव्यं क्षेत्रं सुधीः कालं भवं भावं विविच्य यः । सद्दर्शनमहारत्नमादत्ते स विदग्रणीः ॥ ७९ सम्यक्त्वेन विशुद्धात्मा भवी सरे भवति क्षमः। ग्रहीतुं चरणं चारु तद्विना न मनागपि ॥ ८० निर्दूषणा सती दृष्टिददाति विपुलं फलम् । सुविशुद्धं यथा क्षेत्रं कर्षितं हि कुटुम्बिना ॥ ८१ उपस्थितं कियद्भरि कर्मणां पाकहेतुजम् । सुदृष्टिः साधुदोषं न पश्यतीति महाद्भुतम् ॥ ८२ विद्यमानं महादोषं परकीयं महाधियः । प्रकाशयन्ति नो जातु स्वसिद्धिमुपलिप्सवः ॥ ८३ निमज्जन्ति भवाम्भोधौ यतीनां दोषतत्पराः। किं चित्रं यद्भवेन्मृत्युः कालकूटविषाशनात् ॥ ८४ भक्त्वा दुःखशतान्युच्चैः सर्वासु श्वनभूमिषु । निगोतेऽभिपततन्त्येते ५ यतिदोषपरायणाः ॥ ८५
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जो भव्यजीव द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव तथा भावरूप संसारसे विविक्त होकर सम्यग्दर्शनमहामणिको ग्रहण करता है वह विद्वानोंमें अग्रणी ( श्रेष्ठ ) होता है ॥ ७९ ॥
( सम्यग्दष्टिको चारित्रग्रहण-योग्यता ) जिसका आत्मा सम्यग्दर्शनसे निर्मल हआ है ऐसा संसारीजीव उत्तम-निर्दोषचारित्र ग्रहण करने के लिये पात्र होता है। यदि सम्यग्दर्श नहीं हुई हो तो वह चारित्रग्रहण करनेकोभी असमर्थ है। जैसे किसानोंद्वारा खेत हलसे कर्षित होनेपर वह विपुल धान्य देता है वैसा निर्मल सम्यग्दर्शन जीवको विपुल सुखसंपत्ति देता है ॥ ८०-८१ ॥
( सम्यग्दृष्टि दोषदृष्टि नहीं है ) अनेक विपुल कर्मके उदयरूपी कारणको पाकर साधुमें उत्पन्न हुए दोषको सम्यग्दृष्टि नहीं देखता यह महाश्चर्य है ।। ८२ ॥
आत्मसिद्धिकी इच्छा करनेवाले महाबुद्धिमान महापुरुष दूसरेके विद्यमान महादोषोंको कभीभी प्रगट नहीं करते । तात्पर्य-उनके पास जब अपराधी पुरुष (मनि या श्रावक ) : अपना दोष कहते हैं तब वे गुरु-आचार्य उसको अपने हृदयमें रखते हैं, किसीसे नहीं कहते । यदि कहेंगे तो जैनधर्म की निंदा होगी और बडी अप्रभावना होगी, अतः वह उपगृहनांगके धारक उस अपराधीको योग्य प्रायश्चित्त देकर उसके व्रतोंकी शुद्धि करते है। इसतरह सम्यग्दर्शनके उपगूहन अथवा उपबृंहण अंगका पालन करते हैं ।। ८३ ॥
( दोषग्रहण संसारवर्धक है ) जो यतियोंके दोषग्रहणमें तत्पर होते हैं वे संसारसमुद्रमें डूबते हैं । योग्य ही है कि कालकूट विषको भक्षण करनेसे मुत्यु प्राप्त होती है । इसमें क्या आश्चर्य हैं ।। ८४ ॥
जो यतियोंके दोषग्रहणमें तत्पर होते हैं, उनके विद्यमान अथवा अविद्यमान दोषोंको जगतमें फैलाते हैं वे दोषभावनासे तीव्र और बहुत पापसंग्रह करके संपूर्ण नरकभूमियोंमें उत्पन्न होकर वहां सैकडो दुःखोंका अनुभव लेते हैं। तथा पुनः वे निगोदमें जाते हैं । ८५ ॥
१ आ. संविदग्रणी: २ आ. संभवति
३ आ. तदृते ४ आ. कुटुम्बिन: ५ आ. निपतन्त्येते.
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