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________________ -१२. ६०) सिद्धान्तसारः (२८९ असाध्ये च महाव्याधौ दुभिक्षे वातिदारुणे। उपसर्गप्रवृत्तौ वा साधुर्योग्यः प्रजायते ॥ ५८ गृहीत्वा लिङ्गमत्युधं कृत्वा शान्तं मनोऽधिकम् । सर्वसंगपरित्यागो विधातव्यः प्रयत्नतः ॥५९ मृत्योर्भीति' परित्यज्य स्थिरचित्तेन धीमता । शुभकभावनायां हि स्थातव्यं शुभलेश्यया ॥६० ३४ शुद्धि- समाधिमरणके लिये उद्युक्त हुए मुनिराजको आचार्य उपदेश देते हैं । ३५ कवच- जैसे कवच- बखतर सैंकडों बाण पडनेपर उत्पन्न हुए दुःखोंसे वीरपुरुषको बचाता है, वैसे आचार्यका किया हुआ धर्मोपदेश आराधकको दुःखोंसे बचाता है। चतुर्गतिमें पूर्वभवमें आराधकके आत्माने दुःसह दुःखोंका अनुभव लिया है, परंतु वह सब व्यर्थ हुआ । वह दुःखसहन आत्म-हितकारी नहीं हुआ। परंतु हे आराधक इस समय जो दुःख तेरे द्वारा सहा जा रहा है वह तेरे कर्मकी निर्जरा करेगा । वर्तमान दुःखोंको नष्ट करके अतीन्द्रिय, निश्चल, उपमारहित, बाधारहित सुख देगा । इस प्रकार कहा हुआ आचार्यका उपदेश आराधकके दुःखोंका नाश करनेवाला होनेसे कवचके तुल्य है । अतः इसको कवच नाम देना योग्यही है । जैसे किसी तेजस्वी बालका शौर्यगुण सूचित करनेके लिये उसमें सिह शब्दका आरोपण करते हैं वैसे यहांभी कवचगुणोंका अध्यारोपण उपदेशमें करके उसको कवच शब्दसे गौरवित किया है। ___३६ समता- जीवित, मरण, लाभ, हानि, संयोग, वियोग, सुख और दुःख इनमें रागद्वेषोंका त्याग करके उपेक्षाबुद्धि धारण करना। ३७ ध्यान- अन्यपदार्थोसे चित्तको हटाकर उसको एकविषयमें नियुक्त करना । ३८ लेश्या- मन-वचन और शरीरके व्यापार कषाययुक्त होना । ३९ फल- आराधनासे प्राप्त हुए साध्यको फल कहते हैं। ४० देहत्याग- आराधकका देह छोडना । इस प्रकार भक्त प्रत्याख्यानके चालीस अधिकारोंका संक्षिप्त विवेचन किया है। इसका विस्तृत विवेचन मूलाराधनामें पाठक देखें ॥५१-५७॥ ( सल्लेखनाधारण करने योग्य परिस्थितिका वर्णन । )- जब किसी साधुके संयमसमुदायको नष्ट करनेवाला और महाप्रयत्नसेभी जिसकी चिकित्सा न हो सके ऐसा रोग होनेसे वह भक्तप्रत्याख्यानके योग्य होता है। जिसमें जीनेकी संभावना नहीं है ऐसा अतिशय भयंकर दुर्भिक्ष पडनेपर, या देवकृत, मनुष्यकृत, तिर्यंचकृत उपसर्ग होनेपर साधु सल्लेखनाके लिये योग्य होता है ॥ ५८ ॥ ऐसी परिस्थितिमें अत्यन्त श्रेष्ठ-महान्- जिनलिंग धारण कर, तथा मन अधिक शान्त करके संपूर्ण परिग्रहोंका त्याग प्रयत्नसे करना चाहिये ॥ ५९॥ मृत्युका भय हृदयसे निकाल देना चाहिये । जिसका स्थिरचित्त हुआ है, ऐसे विद्वान् मुनिवर्यको शुभलेश्या धारणकर (पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याओंको शुभलेश्या कहते हैं । इनके लक्षण गताध्यायमें दिये हैं ) शुभभावनाओंमेंही तत्पर रहना चाहिये । ६० ॥ १ आ. मरणस्य भयं त्यक्त्वा S. S. 37. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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