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सिद्धान्तसारः
(१२. १६
१२ दिशा- आचार्यने अपने स्थानपर स्थापित किया हुआ शिष्य जो परलोकका उपदेश करके मोक्षमार्गमें भव्योंको स्थिर करता है, जिसको बालाचार्य कहते हैं, यह शिष्य आचार्यके समान गुणोंका धारक होता है।
१३ परस्पर क्षान्ति- अन्योन्य क्षमाकी याचना करना । १४ अनुशासन- आगमके अविरुद्ध उपदेश देना। १५ चर्या- अपना संघ छोडकर परगणमें- अन्यसंघमें गमन करना ।
१६ मार्गणा- रत्नत्रयकी विशुद्धि करने में समर्थ अथवा समाधिमरण करनेमें समर्थ ऐसे आचार्यको ढूंडना, शोधना।
१७ सुस्थित- परोपकार करने में तथा स्वकीय आचार्यपद- योग्य कार्य करनेमें प्रवीण गुरुको सुस्थित कहते हैं।
१८ स्वसमर्पण- आचार्यके चरणमूलमें गमन करना, आचार्यके स्वाधीन होना।
१९ परीक्षा- गण, शुश्रूषा करनेवाले मुनि समाधिमरणाराधक, उत्साहशक्ति, आहारकी अभिलाषा इत्यादिककी परीक्षा करना।
२० निर्विघ्न अवलोकन- आराधनामें विघ्न उपस्थित होनेसे आराधनाकी सिद्धि नहीं होती है । अतः उसकी निर्विघ्नताके लिये राज्य, देश, गांव, नगर वगैरहका शुभाशुभावलोकन ।
२१ आपृच्छा- यह आराधक भक्तप्रत्याख्यानके लिये आया है इसके ऊपर अनुग्रह करना योग्य है या नहीं ऐसा संघसे प्रश्न करके उनसे सम्मति प्राप्त करना ।
२२ प्रतिपृच्छा- परिचारक मुनियोंकी सम्मति मिलनेपर एक आराधकको स्वीकारना। २३ आलोचना- गुरुके आगे अपने पूर्वापराध कहना । २४-२५ गुणदोष- आलोचनाके गुणदोषोका वर्णन करना ।
२६ संस्तरोपस्था- समाधिमरण साधनेके लिये आराधककी योग्य वसतिका निवास । संस्तर- अर्थात् आराधकके लिये आगमोक्त शय्या।
२७ निर्यापकगण- आराधकको समाधिमरण साधने में सहायता करनेवाले आचार्यादिक। २८ प्रकाशन- आहारको दिखाना। २९ अवहानि- क्रमसे आहारका त्याग करना। ३० प्रत्याख्यान-तीन आहारोंका त्याग ।
३१-३२ क्षमा क्षमण- आचार्यादिकोंको क्षमाकी याचना करना तथा दूसरोंके किये हुए अपराधोंकी क्षमा करना।
३३ सारणा- दुःखसे पीडित हुए और मोहसे बेसुध हुए मुनिराजको सावधान करना सचेत कर देना।
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