SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 312
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -१२. ४५) सिद्धान्तसारः (२८५ आर्तरौद्रवतां मृत्युर्जायते बहुदुःखतः । सर्वेषां बालबालानां' मरणं कथयन्ति ते ॥ ३७ आवीचिमरणं चान्यत्समयं समयं प्रति । आयुष: 'संक्षयात्प्रोक्तं मुनीन्द्रर्हतकल्मषैः ॥ ३८ भुज्यमानायुषश्चान्ते मृत्युस्तद्भवसंभवः । कथ्यते श्रीजिनाधीशैरनेकगुणसंयुतैः ॥ ३९ येनैव ये मृतःपूर्व तेन तस्य पुनर्भवेत् । मृत्युविधिनामानं तमुशन्ति यतीश्वराः ॥ ४० येन पूर्व मृतस्तेन न मृत्युर्जायते पुनः । यस्मात्तन्मरणं प्राहुराद्यन्तमिह रूढितः ॥ ४१ मायामिथ्यानिदानादिशल्यैर्यन्मरणं भवेत् । सशल्यमरणं तद्धि दुष्टं दुर्गतिकारणम् ॥ ४२ दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमुत्सृज्य जायते । मरणं तत्समुत्सृष्टं दूःखपाथोधिवर्धकम् ॥ ४३ गृद्धपृष्ठभवो मत्युः कथ्यते यस्य जायते । हस्त्यादेरुदरस्थस्य महादुःखविधायकः ॥ ४४ घाणादिकनिरोधेन यो मृत्युभववर्तिनाम् । विधासमरणं तद्धि कथयन्ति कथाविदः ॥ ४५ ( बालबालमरणका स्वरूप। )- आर्तध्यानसे और रौद्रध्यानसे अतिशय दुःखित होकर जो मरण होता है वह सब बालबालोंका मरण है ऐसा कहते हैं ॥ ३७ ।। (आवीचिमरण तथा तद्भव मरण। )- प्रत्येक समयमें जो आयुका क्षय होता रहता है उसको, नष्ट किया है पाप जिन्होंने ऐसे मुनीश्वरोंने आवीचिमरण कहा है। वर्तमानकालमें जिस आयुष्यका प्राणी उपभोग ले रहा है उसको भुज्यमान आयु कहते हैं। उसका अन्त होनेपर जो मृत्यु आती है वह तद्भवमरण है, ऐसा अनेक गुणोंसे संयुक्त श्रीजिनेन्द्रोंने कहा है ॥३८-३९॥ ( अवधिमरण । )- जो जिस मरणसे पूर्वभवमें मरा था उसी मरणसे वह पुनः इस भवमेंभी यदि मरेगा तो उसके इस मरणको यतीश्वर अवधिनामका मरण कहते हैं ।। ४० ॥ ( आद्यन्तमरणका स्वरूप। )- जिस मरणसे प्राणी पूर्वभवमें मरा था उस मरणसे पुनः मरण न होना उसको रूढिसे आद्यन्त मरण कहते हैं ॥ ४१ ॥ ( सशल्यमरणका विवरण । )- माया, मिथ्यात्व और निदान आदि शल्योंसे जो मरण होता है उसको सशल्य मरण-शल्यभाव-सहित मरण कहते हैं और वह दुष्ट तथा दुर्गति प्राप्तिका कारण है ॥ ४२ ॥ (समुत्सृष्ट-मरणका विवरण। )- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और चारित्रका त्याग करके जो मरण होता है उसको समुत्सृष्ट मरण कहते हैं। यह मरण दुःखरूपी समुद्रको बढानेवाला है ।। ४३ ॥ ( गृद्धपृष्ठ-मरण । )- हाथी आदिके पेट में घुसकर जो मृत्यु होती है उसको गृद्धपृष्ठ मरण कहते हैं, यह मरण महान् दुःखको उत्पन्न करता है ॥ ४४ ॥ ( विघ्रास मरण। )- नाक, कण्ठ आदि दबाकर-श्वासोच्छ्वासका निरोध कर जो संसारी जीवोंका मरण होता है वह विघ्रास मरण है ऐसा उसका यथार्थस्वरूप जाननेवाले विद्वान् कहते हैं ॥ ४५ ॥ १ आ. बालबालं तन्मरणं २ आ. संक्षये ३ आ. संभव ४ आ. यस्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy