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________________ २८४) सिद्धान्तसारः (१२. ३२ तदेतत्त्रिविधं प्रोक्तं पण्डितं मरणं यतेः' । प्रायोपगमनं चाद्यमिङ्गिनीमरणं पुनः ॥ ३२ भक्तत्यागस्तदर्थः स्यादात्मनः स्वपरस्य च । वैयावृत्त्यस्य सापेक्षं सद्गतेः कारणं परम् ॥३३ प्रायोपगमनं यत्तद्वयावृत्त्यविवजितम् । स्ववैयावृत्यसापेक्षमिङ्गिनीमरणं मतम् ॥ ३४ काले संन्यस्य वेगेन सर्वग्रन्थविजितः । आराधयन्गुरुन्पञ्च मियते बालपण्डितः५ ॥ ३५ संन्यासादिविनिर्मुक्तमाकस्मिकविघाततः । शुद्धदृष्टर्भवेन्मृत्युस्तद्वालो' गदितो बुधैः ॥ ३६ ( पंडितमरणके तीन भेद। )- यतिका यह पंडितमरण तीन प्रकारका है। प्रायोपगमन मरण, इंगिनीमरण, भक्तत्याग-मरण । इंगिनीमरणवाला केवल अपने वैयावृत्त्यकीही अपेक्षा करता है अर्थात आहारका त्याग करके स्वयं उठता बैठता है अन्योंका साहाय्य नहीं चाहता। इसमें तीसरा मरण जिसको भक्तत्यागमरण कहते हैं वह अपने और अन्योंके वैयावृत्त्यकी अपेक्षा रखता है। भक्तत्यागमरणको भक्तप्रतिज्ञा कहते हैं। भक्त शब्द आहारका वाचक है और प्रतिज्ञा शब्दका अर्थ प्रत्याख्यान त्याग ऐसा है। जिसमें क्रमशः आहारका त्याग किया जाता है ऐसे मरणको भक्तप्रतिज्ञा मरण कहते हैं ॥ ३२-३३ ॥ (प्रायोपगमन और इंगिनीमरणका विवरण । )- प्रायोपगमन मरण वैयावृत्त्यसे रहित होता है और इंगिनीमरण स्ववैयावृत्त्यकी अपेक्षा करता है। प्रायः अर्थात् अनशन-आहारोंका त्याग करना । पादोपगमन ऐसाभी इस मरणका नाम है। इसका खुलासा-पावोंसे गमन करना अर्थात् अपने संघका त्याग कर उस संघसे निकलकर योग्य स्थानका आश्रय लेना। अथवा प्रायोग्य-संसार नाशके लिये योग्य ऐसे संस्थान और संहननके गमन प्राप्तिसे जो मरण किया जाता है उसको प्रायोग्य मरण कहते हैं। इंगिनीमरण-स्ववैयावृत्यकी अपेक्षा करता है । इंगिनी शब्द अपने अभिप्रायका वाचक है। अपने अभिप्रायके अनुसार स्वयंही स्वतःकी शुश्रूषा कर जो मरण किया जाता है उसे इंगिनी मरण कहते हैं। परिचारक मुनिकी शुश्रूषा इसमें क्षपक नहीं चाहता है ॥ ३४ ॥ ( बालपण्डित-मरणका विवरण । )- बालपण्डित पंचमगुणस्थानी क्षुल्लकादिक, प्रतिमाधारी श्रावक अंतकालमें रागद्वेषादिकोंका त्याग कर संपूर्ण परिग्रहोंसे रहित हो जाता है। और पंचपरमेष्ठीयोंकी आराधना करके मरण प्राप्त करता है । ३५ ।। ( बालमरणका स्वरूप। )- संन्यासादिकोंसे रहित आकस्मिक कुछ प्रहारादिक होनेसे जो शुद्ध सम्यग्दृष्टिका मरण होता है वह बालमरण है ऐसा सुज्ञोंने कहा है ।। ३६ ॥ १ आ. यतः . २ आ. पादो ३ आ. स्तुतीयः ४ पादो ५ पण्डितात् ६ आ. तद्वालं गदितं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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