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-१२. २०)
सिद्धान्तसारः
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शरदभ्रसमाकारं जीवनं यौवनं धनम् । आराध्य' च वनं नित्यमित्थं यस्य सदा मतिः ॥ १४ मुक्त्वा जैनेश्वरं धर्म शरणं मम गच्छतः । दुर्गति नोपजायन्ते पुत्राद्या वेत्ति यस्त्वदः ॥ १५ पञ्चप्रकारसंसारसरणं सरता मया। दुःखान्याप्तान्यनन्तानि ह्यधर्मादिति वेत्ति यः॥ १६ सुखं वा यदि वा दुःखं सुगतिं वाथ दुर्गतिम् । एक एवाभिगच्छामि न सम्बन्धभवाः परे ॥१७ यो जानाति महाप्राज्ञः शरीरमपि नान्तरम् । मदीयं यत्र कि तत्र धनधान्यादिकं पुनः ॥ १८ सप्तधातुमयं चास्थिचर्मनद्धं कुसंस्थिति । शरीरं क्षणविध्वंसि धर्म एव हि शाश्वतः ॥ १९ मनोवाक्कायकर्मेति योगोऽसावास्रवो महान् । कर्मास्रवत्यनेनेति यो जानाति स तत्त्ववित् ॥२०
है । यह जीवन, तारुण्य और धन शरत्कालके मेघके समान हैं। अब मुझे वनही आरध्य हैसेवने योग्य हैं ऐसी उस भव्यकी बुद्धि होती है। ऐसा विचार कर वह धनादिकसे विरक्त होता है।। १४ ॥
दुर्गतिको जानेवाले मुझको जिनेश्वरका धर्म छोडकर अन्य पुत्रादिक शरण नहीं है अर्थात् जिनधर्मही मेरा दुर्गतिसे रक्षण करनेवाला है ॥ १५ ॥
संसारानुप्रेक्षा- पांच प्रकारके संसारमें भ्रमण करनेवाले मुझे अधर्मसे अनन्त दुःख प्राप्त हुए हैं ऐसा भव्य मनमें विचार करता है ॥ १६ ॥
सुख अथवा दुःख, सुगति अथवा दुर्गतीको मैं अकेलाही जाऊंगा। मेरे संबंधसे उत्पन्न हुए पुत्रादिक मेरे साथ सुखी और दुःखी नहीं होंगे। सुगति अथवा दुर्गतिमें मेरे साथ चलेंगे ऐसा नहीं ॥ १७ ॥
जो महाबुद्धिवान् पुरुष अपने अतिशय अभिन्न शरीरकोभी यह मेरा है ऐसा नहीं समझता है, वह धन-धान्यादिक पदार्थ, जो सर्वथा भिन्न हैं, अपने कैसे मानेगा?॥ १८ ॥
यह शरीर रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र ऐसे सात धातुओंसे बना हुआ है। अस्थि और चर्मसे बंधा हुआ है । इसकी आकृतिभी कुत्सित है। यह शरीर क्षणविध्वंसिक्षणविनाशी है परन्तु धर्मही नित्य है ॥ १९ ॥
मन, वचन और शरीरसे होनेवाली जो आत्माके प्रदेशोंकी चंचलता उसे योग कहते हैं। यह योगही महान् आस्रव है। कर्मोंके आगमनका द्वार होनेसे इसे आस्रव कहते हैं। इस योगसे कर्म आत्मामें आ जाता है । इस आस्रवतत्त्वको जो जानता है वह तत्त्ववेदी है ।। २० ॥
जो उत्तम क्षमा मार्दवादि दश धर्मोंका पालन करनेमें तत्पर रहता है, जिसका मन तपमें नित्य तत्पर रहता है, जो कर्मोको अपनेमें नहीं आने देता है, वह बुद्धिमान् इस प्रकारका
२ आ. एवेह ३ आ. कमकयोगो ४ आ. सूतत्त्ववित्
१ आ. आराध्याराधनं
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