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________________ -११. १५) सिद्धान्तसारः (२६५ उपेत्याधीयते येभ्यो मोक्षार्थ शास्त्रमुत्तमम् । उपाध्याया भवन्त्येते ज्ञानध्यानधनाः सदा ॥९ धर्मादेशं न कुर्वन्ति परेभ्यो वितरन्ति न । ये दीक्षामात्मनः सिद्धि साधयन्तीति साधवः ॥१० घोरवीरतपोयुक्तस्तपस्वी स निगद्यते । शिक्षाशीलः' सुशैक्षोऽसावजिकाक्षुल्लिकादिकः ॥ ११ रुजाक्लान्तशरीरोऽसौ ग्लान इत्यभिधीयते । योऽयं सुचिरसन्तानः५ साधूनां स गणो मतः॥१२ दीक्षाचार्यस्य या शिष्यसन्ततिस्तत्कुलं मतम् । श्रवणादिचतुर्वर्णसंस्त्यायः सङ घउच्यते ॥ १३ लोकानां सम्मतो यस्तु मनोज्ञः स निगद्यते । इत्येषां हि दशानां तद्वयावृत्यमुदीरितम् ॥ १४ वाचना प्रच्छनाम्नायोऽनुप्रेक्षा धर्मदेशना। स्वाध्यायः पञ्चधा ज्ञेयः सदा स्वाध्यायकारिभिः॥१५ और तप आचार इन पांच प्रकारके आचारोंको और उनके भेदप्रभेदोंको स्वयं आचरते हैं तथा शिष्यादिकोंको उनके आचारमें प्रवृत्त कराते हैं ।। ८ ।। २ उपाध्याय- जिनके पास जाकर मोक्षके लिये उत्तम- निर्दोष रत्नत्रय प्रतिपादक शास्त्रका अध्ययन किया जाता है तथा जिनके पास ज्ञान और ध्यानरूपी धन सदा रहता है ऐसे मुनीश्वरको उपाध्याय कहते हैं ॥ ९ ॥ ३ साधु - जो मुनि दूसरोंको धर्मोपदेश नहीं देते हैं और जो दीक्षा नहीं देते हैं, जो आत्मध्यान करके आत्मसिद्धिके मार्गमें लगे हैं वे साधु मुनि हैं ॥ १० ॥ ४ तपस्वी- जो घोरवीर तप करते हैं वे तपस्वी मुनि हैं। ५ शैक्ष्य- शास्त्राभ्यास करनेवाले आर्यिका, क्षुल्लिका, आदिकोंको शैक्ष्य कहते हैं । ६ ग्लान- रोगोंसे जिनका शरीर थक गया है कृश हुआ है वे ग्लान- मुनि हैं। ७ गण- साधुओंका जो दीर्घकालीन समूह अर्थात् वृद्धमुनियोंका जो समूह उसे गण कहते हैं। ८ कुल- दीक्षा देनेवाले आचार्यका जो शिष्यसमुदाय उसको कुल कहते हैं। ९ संघ- ऋषि, मुनि, यति, अनगार ऐसे चार प्रकारके मुनि अथवा मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका इनका समूह संघ है ।। ११-१३ ॥ १० मनोज्ञ- वक्तृत्वादि गुणोंसे शोभनेवाले लोकमान्य विद्वान् मुनिको मनोज्ञ कहते हैं । ऐसे दस प्रकारके मुनियोंकी औषधसे और शरीरचेष्टासे जो शुश्रूषा करना वह वैयावृत्य है । रोग, परिषह, मिथ्यात्व आदिक संकट आनेपर उनको औषधादिकसे दूर करना वैयावृत्त्य है ॥१४॥ ( स्वाध्यायतपके भेद । )- वाचना, पृच्छना, आम्नाय, अनुप्रेक्षा और धर्मदेशना ऐसे स्वाध्यायके पांच भेद सदा स्वाध्याय करनेवाले मुनियोंको जानने योग्य है ॥ १५ ॥ ५ आ. स्थविर १ आ. धर्माख्यानं २ आ. दीक्षाद्या ३ आ. भिक्षाशीलस्तु भैक्षोऽ ४ आ. यो ६ आ. मेलापः। S.S. 34. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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