SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एकादशोऽध्यायः । दर्शन 'ज्ञानचारित्रोपचारप्रविभेदतः । सूरिसूर्या जगुः पूतं विनयं तं चतुर्विधम् ॥ १ शडकादिदोषनिर्मुक्तं श्रद्धानं यदहनिशम्। तत्त्वतत्त्वार्थदृष्टीनां विनयो दर्शनस्य सः॥२ ज्ञानस्य ज्ञानयुक्तस्य बहुमानमनेकधा । स्मरणाभ्यासपूजाद्यैर्ज्ञानस्य विनयो भवेत् ॥३ चारित्रस्य तथा तावत्तद्वतो बहुभेदतः । स्मरणं पूजनं दक्षैश्चारित्रविनयोऽकथि ॥ ४ आचार्यादिषु दृष्टषु यावत्कालं विधीयते । अभ्युत्थानाभिगम्यादि यत्सोऽध्यक्षौपचारिकः ॥५ आचार्यादिष्वदृष्टेषु सर्वदा गुणऊर्तनम् । कुर्वन्ति यदमी भव्यः स परोक्षौपचारिकः ॥ ६ आचार्याध्यापकादीनां वैयावृत्यमनिन्दितम् । दशधाभाणि सूत्रज्ञैर्बहुधा पुण्यकारकम् ॥ ७ स्वयं चरन्ति एवास्मिन्नन्यानाचारयन्ति ये । पञ्चधानेकधाचारमाचार्यास्ते भवन्त्यमी ॥ ८ ग्यारहवा अध्याय । ( विनयतपका वर्णन । )- पूज्य अर्हदादि व्यक्तियोंका और सम्यग्दर्शनादिक सद्गुणोंका आदर करना विनय है । इस पवित्र तपके दर्शनविनय, ज्ञानविनय, चारित्रविनय और उपचार विनय ऐसे चार भेद आचार्य सूर्योंने कहे हैं ॥ १ ॥ ( दर्शनविनय। )- जीवादिक सप्ततत्त्व और उनके ऊपर श्रद्धा करनेवाले सामिक व्यक्तिके ऊपर अहोरात्र अर्थात् हमेशा शंकादि-दोषरहित जो श्रद्धा करना वह दर्शनविनय है ॥२॥ ( ज्ञानविनयका लक्षण। )- सम्यग्ज्ञान और सम्यग्ज्ञानयुक्त मुनियोंका अनेक प्रकारसे स्मरणपूजन आदिक करना वह ज्ञान विनय है ऐसा दक्ष मुनियोंने कहा है ।। ३ ।। ( चारित्रविनय । )- चारित्रका और चारित्रके धारक पुरुषोंका अनेक प्रकारसे दक्षचतुर पुरुषोंसे स्मरण पूजन किया जाता है उसे चारित्र विनय कहा है ।। ४ ॥ (प्रत्यक्षोपचार विनय, परोक्षोपचार विनय । )- आचार्यादिक दृष्टीगोचर होनेपर आदरसे ऊठना, उनका स्वागत करना, हाथ जोडना इत्यादिक आदर यावत्काल किया जाता है उसको अध्यक्षोपचार अर्थात् प्रत्यक्षोपचार विनय कहते हैं। जब आचार्यादि परोक्ष हैं ऐसे समय उनका भव्यजीव गुणकीर्तन करते हैं वह परोक्षऔपचारिक विनय है ॥ ५-६ ॥ ( दसप्रकारका वैयावृत्त्य। )- शरीरकी क्रियाओंसे और औषधादिकसे जो उपासना करना वह वैयावृत्त्य है। उसके आचार्यवैयावृत्त्य, उपाध्यायवैयावृत्त्य आदि दस प्रकार हैं । यह प्रशंसनीय वैयावृत्त्य अनेक प्रकारोंसे पुण्यकारक है ऐसा सिद्धान्तसूत्रके ज्ञाता आचार्य कहते हैं ।।७।। १ आचार्य- जो पांच प्रकारोंके आचारोंमें स्वयं प्रवृत्ति करते हैं और जो दूसरोंकोशिष्योंको प्रवृत्त करते हैं वे आचार्य हैं। ये आचार्य दर्शनाचार, ज्ञानाचार, वीर्याचार, चारित्राचार १ आ. ज्ञान दर्शनेति । २ आ. पुण्यकारणम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy