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________________ २५६) सिद्धान्तसार: ( १०. ११५ एकेन्द्रियेषु षट्त्रिंशन्मृतेष्वत्र प्रजायते । प्रायश्चित्तं प्रतिक्रान्तिः षष्ठमेकं निरन्तरम् ।। ११५ द्वीन्द्रियेषु तथा चैवमष्टादशसु कथ्यते । त्रीन्द्रियेष्वेतदेव स्याद्द्द्वादशसु मृतेषु च ॥ ११६ चतुरिन्द्रियजीवेषु नवसु प्रणिगद्यते । पञ्चेन्द्रिये तदेकस्मिञ्जायते निःप्रमादिनाम् ।। ११७ साधूनां श्रावकाणां च स्त्रीबालादिगवादिनाम् । विघाते जायते दण्डस्तं वक्ष्यामि यथागमम् ॥ साधुधाते भवेद्दण्डो मासान्द्वादश यावतः । षष्ठषष्ठोपवासेन नैरन्तर्येण सर्वथा ॥ ११९ श्रावकस्य तु घातेऽस्य षण्मासान् षष्ठषष्ठतः । पारणाविधिना सर्वे प्राणिनो दोषहारिणः ॥१२० बाघाते भवन्त्येते त्रयो मासा निरन्तराः । सार्द्धा मासश्च षष्ठैः स्यात्स्त्री सामान्यविघातिनाम् ॥ दिवसाश्च प्रजायन्ते त्रयोविंशतिरेव च । षष्ठोपवासतो दण्डो गवादीनां विशोधतः ' ।। १२२ छत्तीस एकेन्द्रिय जीवोंका घात होनेपर प्रतिक्रमण और दो उपवास निरंतर करने चाहिये ॥ ११५ ॥ द्वन्द्रिय जीव अठारह और त्रीन्द्रिय जीव बारह इनका घात होनेपर यही प्रायश्चित्त है । ( प्रतिक्रमण और दो उपवास ।। ११६ ॥ चतुरिन्द्रिय जीव नौ और पंचेन्द्रिय जीव एक इनका मरण प्रमादरहित साधुके द्वारा होनेपर प्रतिक्रमण और दो उपवास का प्रायश्चित्त है ॥ ११७ ॥ ( साधु आदिके घातक प्रायश्चित्त । ) - साधु श्रावक, स्त्री, बालक, गाय आदिका घात होनेपर जो प्रायश्चित्त है उसका वर्णन आगमानुसार मैं करता हूं ॥ ११८ ॥ ( साधुघातका प्रायश्चित्त । ) - साधुका घात करनेपर निरन्तर दो दो उपवास बारह महिनोंतक करना चाहिये । अर्थात् दो उपवास अनंतर पारणा फिर दो उपवास पुनः पारणा ऐसा क्रम एक वर्षतक करनेसे साधुघातका प्रायश्चित्त पूर्ण होकर विशुद्धि होती है ।। ११९ ।। ( श्रावकघातका प्रायश्चित्त । ) - श्रावकघात करनेपर छह महिनोंतक दो उपवासके अनंतर पारणा, दो उपवासके अनंतर पारणा ऐसा उपवास विधि करना चाहिये जिससे श्रावकघातक पापमुक्त होकर शुद्ध होता है ॥ १२० ॥ ( बालघात और स्त्रीघातका प्रायश्चित्त । ) - बालघात करनेपर निरंतर तीन मासतक दो उपवासके अनंतर पारणा करनी चाहिये और स्त्री सामान्यका घात करनेपर साडेतीन महिनोंतक निरन्तर दो उपवास और पारणा, दो उपवास और पारणा ऐसा प्रायश्चित्तका क्रम करनेसे शुद्धि होती है ॥ १२१ ॥ ( गाय आदि पशुघातका प्रायश्चित्त । ) - गाय वगैरह प्राणियोंका घात करनेपर तेईस दिनोंका प्रायश्चित्त करना चाहिये अर्थात् दो दो उपवास और पारणा करना चाहिये ।। १२२ ॥ १ आ. विघाततः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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