SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 282
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -१०. ११४) सिद्धान्तसार: (२५५ आसादनं प्रकुर्वाणास्तीर्थेशगणयोरपि । श्रुतं जैनमतिक्रामन्भूयः पारञ्चिको भवेत् ॥ १०६ साधूनां श्रावकाणां च मूलोत्तरगुणेषु यत् । व्रतभङ्गेषु भग्नेन कथयामि यथागमम् ॥ १०७ मूलोत्तरगुणोपेते साधौ यत्नवति स्थिरे । वधे दण्डतनूत्सर्गा भवन्तीन्द्रियङ्खयया ॥ १०८ अस्थिरस्यास्य जायेत कायोत्सर्गविशोधनम् । प्राणादिसङख्ययोत्पन्ने बधे एकेन्द्रियादिनाम् ॥१०९ अप्रयत्नवतस्तस्य स्थिरस्येन्द्रिय सङख्यया । उपवासा भवन्त्येव प्रायश्चित्तं विशुद्धये ॥ ११० अस्थिरस्यास्य जायन्ते हह्युपवासा विशोधनम् । प्राणादिसंख्यया जाते वर्ष चैकेन्द्रियादिषु ॥ १११ अथवा जायते दण्डः क्षेत्रकालाद्यपेक्षया । योऽयं तमपि वक्ष्यामि श्रीगुरूणां प्रसादतः ॥ ११२ तदैकेन्द्रियजीवानां द्वादशानां वधे सति । उपवासो भवेत्साधोः शोधनं शुद्धिर्वार्तनः ॥ ११३ स षड्भिर्द्वान्द्रियैः साधोश्चतुभिस्त्रीन्द्रियैः पुनः । निहतेर्जायते ' दण्डः सत्यमेकोपवासतः ॥ ११४ ( पारंचिक प्रायश्चित्तका वर्णन । ) - जो मुनि तीर्थकरोंका, गणधरोंका और गणका आसादन- अपमान करता है, जैनागमको उल्लंघता है- विरुद्ध प्रवृत्ति करता है, राजस्त्री आदिका सेवन करता है वह मुनि पारंचिक प्रायश्चित्तके योग्य है ॥ १०६ ॥ ( मूलगुण और उत्तर गुणोंके दोषोंमें प्रायश्चित्त - वर्णन । ) - साधु और श्रावकों के जो मूलगुण और उत्तर गुण हैं, उनमें व्रतोंके प्रभेदोंका जो भंग होता है- व्रतनाश होता है, उसके लिये आगमानुसार मैं प्रायश्चित्तका वर्णन करता हूं ।। १०७ ॥ मूलगुण और उत्तर गुणोंसे युक्त साधुके द्वारा यदि हिंसा हुई तो इंद्रियसंख्या के अनुसार उतने कायोत्सर्ग करने चाहिये ।। १०८ ।। जो साधु व्रतोंमें अस्थिर हैं उसको कायोत्सर्गका प्रायश्चित्त है अर्थात् एकेन्द्रियादि जीवोंका वध होनेपर उनके प्राणसंख्या के अनुसार कायोत्सर्ग करना चाहिये ॥ १०९ ॥ जो प्रयत्नपूर्वक प्रवृत्ति नहीं करता है ऐसे अस्थिर साधुको विशुद्धिके लिये इन्द्रियसंख्या के अनुसार उपवास करने चाहिये ।। ११० ॥ अप्रयत्नवान् और अस्थिर ऐसे साधुको एकेन्द्रियादिकोंका वध होनेपर प्राणादि संख्याके अनुसार उपवास करना चाहिये ।। १११ ॥ अथवा क्षेत्रकालादिकोंकी अपेक्षासे जो प्रायश्चित्त दिया जाता है उसका भी श्रीगुरुके प्रसाद से मैं वर्णन करता हूं ॥ ११२ ॥ शुद्धिमें रहनेवाला जो साधु है उससे यदि बारह एकेन्द्रिय जीवोंका वध होवे तो एक उपवास प्रायश्चित्त है ।। ११३ ।। छह द्वीन्द्रिय जीव और चार त्रीन्द्रिय जीव इनका वध होनेसे एक उपवासका प्रायश्चित्त है ।। ११४ ।। १ आ. व्रतं भग्नेषु भग्नेन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy