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( १०.८७
शैत्यं यत्र रसाधिक्यभोजनं वा सुभोजनम् । तत्रोत्कृष्टं भवेत्तावच्छोधनं मुनिभिर्मतम् ॥ ८७ उष्णे चापि तथा रूक्ष हीनं देयं मनीषिभिः । यत्तु मध्यं' प्रदीयेत प्रायश्चित्तं च मध्यमे ॥ ८८ उत्कृष्टाहारयुक्तानामुत्कृष्टं तत्तपो मतम् । मध्यमाहारयुक्तानां ईषद्नं तदेव हि ॥ ८९ रूक्षाल्पभुक्तियुक्तानां क्षीणानामतिरूक्षिणाम् । प्रायश्चित्तं भवेन्नित्यं क्षमणेन विर्वाजतम् ॥९० चिरं यो दीक्षया गर्यो प्रायश्चित्तं च दीयते । तपोबलीति गर्वेण गवितोऽपि तथा भवेत् ॥९१ छेदे वितीर्यमाणेऽपि मृदुर्यो हर्षमञ्चति । वन्द्योऽहमित्यनेनास्मिन्निति नैतेन शुद्धयति ।। ९२ परिज्ञाय यथादोषं दातव्यानि मनीषिभिः । अकुर्वाणस्तपः प्राज्यं न शुध्द्येद्गुरुवाक्यतः ॥ ९३ अकुर्वाणस्तपः प्राज्यमश्रद्धो गुरुवाक्यतः । अश्रद्धावानयं घोरशोधनेनैव शुद्धयति ॥ ९४
सिद्धान्तसार:
( उत्कृष्ट प्रायश्चित्त कहां देना चाहिये ? ) - जिस क्षेत्र में शीत जादा है और हांका भोजन 'दूध, घी, गुड, खांड इत्यादि रसप्रचुर होता है अथवा जहांका भोजन उत्तम होता है ari मुनिओंको उत्कृष्ट प्रायश्चित्तका उपयोग करना चाहिये ऐसा कहा है । उष्ण क्षेत्रमें और रूक्ष क्षेत्रमें विद्वानोंका जघन्य प्रायश्चित्त देना चाहिये । मध्यमक्षेत्र में मध्यम प्रायश्चित्त देना योग्य है ।। ८७-८८ ॥
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( आहारकी अपेक्षासे प्रायश्चित्त वर्णन । ) - उत्कृष्टाहार जो करते हैं उनको उत्कृष्ट तपप्रायश्चित्त देना चाहिये । मध्यम आहार करनेवालोंको वही उत्कृष्टतप - प्रायश्चित्त किन्तु कुछ कम प्रायश्चित्त देना चाहिये । रूक्ष और अल्पभोजन करनेवालोंको - अर्थात् अशक्त मुनियोंको अतिरूक्ष प्रायश्चित्त देना चाहिये, अर्थात् असमर्थोंको उपवासरहित प्रायश्चित्त देना चाहिये ।। ८९-९० ॥
( गर्व करनेवाले भी प्रायश्चित्तार्ह है। ) - जिसको दीक्षा लेकर बहुत दिन हुए हैं और जो अपनेको पुराना साधु समझकर गर्व करता है, वह प्रायश्चित्तयोग्य है । उसको प्रायश्चित्त देना चाहिये तथा जो अपने तपःसामर्थ्यका गर्व करता है वह तपोगर्वी मुनिभी प्रायश्चित्त योग्य है ।। ९१ ॥
छेद- प्रायश्चित्त देनेपरभी जो मृदु मुनि - कोमलाचार पालनेवाले मुनि हर्षयुक्त होता है । मैं इस प्रायश्चित्तसे वन्दनीय हुआ हूं ऐसा अभिमान धारण करता है, वह उस प्रायश्चित्तसे शुद्ध नहीं होता ।। ९२ ॥
दोषको जानकर विद्वान् आचार्य प्रायश्चित्त देवें । उत्कृष्ट तप नहीं करनेवाला गुरुदत्त प्रायश्चित्त शुद्ध नही होता है ।। ९३ ॥
जो उत्तम तप नहीं करता और जो गुरुके वचनोंपर श्रद्धा नहीं करता वह श्रद्धारहित मुनि घोर प्रायश्चित्तसेही शुद्ध होता है ॥ ९४ ॥
आ. यत्तु मध्यं मतं क्षेत्रं तत्र मध्यं प्रदीयते 1
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२ आ. संप्रायश्चित्तमञ्चति ।
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