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________________ -१०. ८६) सिद्धान्तसारः (२५१ उष्णकाले जघन्यं स्याद्वर्षाकाले तु मध्यमं । उत्कृष्टं शीतकाले तत्प्रायश्चितं विधीयते ॥ ७९ चतथं ग्रीष्मकाले स्यात्षष्ठं हि स्याद्धनागमे। प्रदेयं शीतकाले स्यादष्टमं च विशोधनम ॥८० शरद्वसन्तो ग्रीष्मश्च त्रयोऽमी गुरवो मताः । प्रावृशिशिरहेमन्ता लघवो लघुकर्मभिः ॥ ८१ इति कालविभागेन तपो देयं मनीषिभिः । अन्यथा दातुरप्येतत्प्रायश्चित्तं प्रजायते ॥ ८२ अनूपं कथ्यते क्षेत्रं सिन्ध्वादिमलयादिकम् । जाङगलं जलसंयुक्तं समुद्रान्तं प्रसाधिकम् ॥ ८३ भक्तयुग्माषयुक्तावत्पञ्चमं सक्तुयुग्मतम् । रसधान्यपुलाकं च यवाग्वाधुपभोजनम् ॥ ८४ सूरणाविमहाकन्दप्रचुर फन्दयुग्मतम् । तन्मनाग्मूलिनीपूर्व मूलयुग्मूलभुङमतम् ॥ ८५ क्षेत्राणि च दशैतानि ज्ञातव्यानि विशेषतः । समस्तवस्तुसात्म्यात्स्यात्सौम्यं साधारणं मतम् ॥८६ ( कालकी अपेक्षासे प्रायश्चित्त वर्णन । )- उष्णकालमें जघन्य प्रायश्चित्त है। वर्षाकालमें मध्यम प्रायश्चित्त है और शीतकालमें उत्कृष्ट प्रायश्चित्त है ॥ ७९ ॥ ___ ग्रीष्मकालमें एक उपवासका प्रायश्चित्त, वर्षाकालमें दो उपवास और शीतकालमें तीन उपवासका प्रायश्चित्त देना चाहिये ॥ ८० ।। शरत्काल, वसन्त और ग्रीष्म ये तीन ऋतुकाल गुरु है और वर्षाऋतु, शिशिरऋतु और हेमन्तऋतु ये लघु-कार्यसे लघु है ॥ ८१ ॥ ऐसे काल विभागके अनुसार विद्वान् आचार्य मुनियोंको प्रायश्चित्त देवें । परंतु कालविभागका विचार न करते हुए आचार्य यदि प्रायश्चित्त देने लगे तो वेही प्रायश्चित्ताह हो जाते हैं ॥ ८२॥ ( दश क्षेत्रोंके नाम । )- जलप्राय क्षेत्रको अनूप कहते हैं जैसे सिंधु, मलयादिक देश । जाङ्गलक्षेत्र वह है जो जलसंयुक्त है । समुद्रके समीपका प्रदेश त्रसादिक रहता है, सजीवोंसे भरा हुआ होता है। जहां भात और उडद ये धान्य प्रचुर उत्पन्न होते है ऐसा चौथा क्षेत्र पांचवा क्षेत्र सत्तु धान्यके उपयोगका होता है । छठा क्षेत्र रसधान्य और पुलाक धान्यसे युक्त है। यव और गोधूमगेहूँ इन धान्योंका जहांके लोक भोजन करते हैं ऐसा सातवा क्षेत्र । सूरणादि महाकंदोंसे भरा हुआ क्षेत्र जिसे कन्दयुक् कहते है वह आठवा क्षेत्र है । जहाँ मूलकादिक विपुल उत्पन्न होते हैं ऐसे क्षेत्रको मूलयुक् कहते हैं। जहां लोक मूलकादि पदार्थ भक्षण बहुत करते हैं उसको मूलभूक् कहते हैं । ये दश क्षेत्र विशेषतासे समझने चाहिये; क्योंकि ये दशक्षेत्र समस्तवस्तुओंका सात्म्य धारण करते हैं अर्थात् इनका भक्षण करनेसे मनुष्योंको सुख होता हैं । जो आहार और पान प्रकृतिके विरुद्ध होनेपरभी बाधक नहीं होते हैं, सुखके लिये कारण होते हैं उनको सात्म्य कहते हैं । ऐसे आहारपानको सौम्य और साधारणभी कहते हैं ॥ ८३-८६ ॥ १ अष्टमं हि धनागमे २ षष्ठमेव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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