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सिद्धान्तसारः
(१०. १२
नियम्य करणग्रामं तप्त्वा देहमशेषतः । कर्मात्मनोः पृथक्त्वं न' कर्तुमेनं विना क्षमः ॥ १२ इन्द्रियाणां महावीर्यविनिवृत्त्यर्थमेव च । घृतादिवृष्यवस्तूनां त्यागो रसविवर्जनम् ॥ १३ विविक्तेषु प्रदेशेषु स्वाध्यायध्यानवृद्धये । यच्च शय्यासनं साधोः पञ्चमं तत्तपो महत् ॥ १४ आतापनमहायोगो वृक्षमूलाधिवासना । साधोनिरावृतस्यापि कायक्लेशो महानयम् ॥ १५ बाह्यत्वं बाह्यभूतस्यापेक्षयास्य तपस्विनः । कथयन्ति मनोरोधादान्तरं हि तथेतरत् ॥ १६ प्रायश्चित्तं विनीतत्वं वैयावृत्त्यमनिन्दितम् । स्वाध्यायश्च तनूत्सर्गो ध्यानमन्तर्गतं तपः ॥ १७
यदि यह उपवास तप नहीं किया जायगा तो इंद्रियोंका समूह अपने स्वाधीन नहीं रहेगा । इन्द्रियोंका समूह स्वाधीन करके संपूर्ण देहको संतप्त कर कर्म और आत्माको भिन्न करने के लिये उपवासके बिना कोई समर्थ नहीं है ॥ १२ ॥
( रसत्याग तप।)- इंद्रियोंका जो विशाल सामर्थ्य है उसको घटाने के लिये घी, दही, गुड, तेल आदिक रसोंका, जो कि वीर्यवर्धक हैं त्याग करना रसविसर्जन- रसत्याग नामक तप है ॥ १३ ॥
(विविक्तशय्यासनत्याग।)- स्वाध्याय और ध्यान में वृद्धि होनेके लिये जहां जन्तुपीडा नहीं होती ऐसे एकान्त स्थानोंमें जो सोना और बैठना वह महान् पांचवा तप है ॥ १४ ॥
( कायक्लेश तप । )- संपूर्ण परिग्रह त्यागी- दिगंबर मुनीश्वर आतापन नामक महायोग धारण करते हैं तथा वृक्षमूलाधिवास नामक महायोग धारण करते है उनका वह महान् कायक्लेश नामक तप है ॥ १५ ।।
स्ष्टीकरण- ग्रीष्मके दिनोंमें पर्वतके ऊपर खडे होकर तप करना और सूर्यका आताप सहन करना आतापन योग है । वर्षाकाल के दिनोंमें वृक्षतलमें बैठकर जलवृष्टिआदिक क्लेश सहन करना तथा शरीरखेद सहन करना कायक्लेश तप है। सुखासक्ति नष्ट करनेके लिये, धर्म प्रभावनाके लिये और देहदुःख सहन करने के लिये यह तप मुनि करते हैं।
(तपके बाह्यत्व और अन्तरंगत्वकी सिद्धि।)- अनशनादि तपोंमें तपस्वियोंको बाह्यभूत जो आहारादि पदार्थ उनके त्यागादिकी अपेक्षा होती है इसलिये अनशनादिक तप बाह्यतप कहे जाते हैं। प्रायश्चित्तादि तपोंको अंतरंगतप कहते हैं; क्योंकि उनमें मनको स्वाधीन करना पडता है । तथा अनशनादिक तप परप्रत्यक्ष होते हैं इसलिये भी उनको बाह्यतप कहते हैं । तथा अन्य धर्मीय साधु और गृहस्थभी अनशनादिक तप करते हैं इसलियेभी इनको बाह्य तप कहना चाहिये ॥ १६ ॥
( अन्तरंग तपके भेद । )- प्रायश्चित्त, विनीतत्व- विनय, प्रशंसनीय वैयावृत्य, स्वाध्याय कायोत्सर्ग और ध्यान ये छह तप अन्तरंग तप है ॥ १७ ॥
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आ. क:
२
आ. दर्प
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