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________________ -९. ४६) सिद्धान्तसारः (२११ अमूर्ता निःक्रियाश्चामी जिनागमे विशेषतः । तथात्मकपरिज्ञानं कर्तव्यं सुमनीषिभिः ॥ ४० आकाशस्य प्रदेशाः स्युरनन्ताः पुद्गलस्य च । तेऽसङख्येयाश्च संख्यया अनन्ताश्च भवन्त्यपि॥४१ कश्चित्सङख्येयदेशः स्यादसंख्येयप्रदेशभाक् । कश्चित्कस्याप्यनन्तास्ते प्रदेशाः समुदीरिताः॥४२ असंख्यातप्रदेशो वा लोकः सर्वोऽपि कथ्यते । तत्रानन्तप्रदेशस्य तस्याधारो विरुध्यते ॥ ४३ नेष दोषो यतः सूक्ष्मपरिणामावगाहतः । आकाशैकप्रदेशेऽपि तदानन्त्येन तिष्ठति ॥ ४४ सूक्ष्मावगाहसच्छक्तिस्तेषामव्याहतास्ति च । प्रमाणप्रतिपन्नत्वादग्नेर्दाहकशक्तिवत् ॥ ४५ नाणोः प्रदेशनानात्वमविभागस्वभावतः । नास्मादल्पप्रमाणं तत्किञ्चिदल्पप्रमाणकम ॥४६ छोडते हैं इसलिये इनको नित्य कहना योग्यही है। ये द्रव्य नित्य है, अमूर्तिक है, और निःक्रिय है, ऐसा जिनागममें विशेषतः प्रतिपादन किया है। जैसा आगममें प्रतिपादन किया है, वैसा विद्वान् उनको जान लेवें ॥ ३९-४० ॥ ( आकाश और पुद्गलोंके प्रदेशोंका वर्णन । )- आकाशके प्रदेश अनन्त है, पुद्गलोंके प्रदेश संख्यात असंख्यात और अनंत हैं । अर्थात् पुद्गलोंके प्रदेश तीनों प्रकारके हैं । कोई पुद्गल संख्यात प्रदेशवाला, कोई पुद्गल असंख्यात प्रदेशवाला और कोई पुद्गल अनंत प्रदेशवाला है । इस प्रकारसे पुद्गलोंके प्रदेश तीन प्रकारके कहे हैं ।। ४१-४२ ॥ लोकाकाश असंख्यात प्रदेशवाला है । वह अनंत प्रदेशवाले पुद्गलोका आधार कैसे होता है ? इस शंकाका उत्तर-- व सर्व लोकाकाश असंख्यात प्रदेशवाला है ऐसा कहा जाता है और पुद्गल अनंत प्रदेशवालाभी है । अतः वह अनन्तप्रदेशवाले पुद्गलोंका आधार कैसे हो सकता है ? यह बात विरुद्ध है । आचार्य कहते हैं, कि इसमें दोष नहीं है । सूक्ष्मत्वशक्ति और अवगाहनशक्ति परमाणुओंमें और ब्द्यणुकादिकोंमें अव्याहत है । इसलिये उपर्युक्त शंका यहां उत्पन्न नहीं होती। परमाणु और ब्द्यणुकादिक स्कंध सूक्ष्मभावसे परिणत होकर एकेक आकाशप्रदेशमें भी अनंतानंत रहते हैं। अवगाहनशक्तिभी इनकी अव्याहत है। इसलिये एक आकाशप्रदेशमें भी अनंतानंत परमाणुओंका और सूक्ष्मस्कंधोंका वास्तव्य विरुद्ध नहीं । जैसे अग्निकी दाहशक्ति लोहेके गोलेमें प्रवेश करती है वैसे पुद्गलपरमाणु और सूक्ष्मस्कंधोंमें अवगाहनशक्ति होनेसे एक आकाशप्रदेशमेंभी अनंतानंत परमाणुओंका स्कंधभी रहता है ॥ ४३-४५ ॥ ( परमाणुका स्वरूप )- परमाणुमें अनेक प्रदेश नहीं हैं, क्योंकि, वह अविभागि स्वभाववाला है। परमाणुके पुनः खंड नहीं होते हैं । वही सबसे अल्पप्रमाणवाला है । उससे कोई छोटा पदार्थ हैही नहीं ॥ ४६ ।। ५ आ. त्रयात्मक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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