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________________ १८४) सिद्धान्तसारः (७. २२२ उत्कर्षेणैव जायन्ते ज्योतिय॑न्तरभावनाः । मिथ्यादृशस्तपोदानयुक्ताअपि सुनिश्चितम् ॥२२२ ब्रह्मलोकावधिं कृत्वा तापसानां परा गतिः । मिथ्यात्वबलयुक्तानां न पुरस्तात्कदाचन ॥ २२३ जीविकाया निमित्तं ते जिलिंगं समाश्रिताः। तन्मिथ्यात्वममुञ्चन्तो ब्रह्मवतसमन्विताः॥२२४ यदि यान्ति मताः स्वर्गसहस्रारं न चाग्रतः। ततोऽन्यलिङ्गिनां नास्ति समुत्पत्तिः कदाचन ॥२२५ दर्शनज्ञानचारित्रत्रयाज्ञामात्रधारिणः । उत्कृष्टतपसा यान्ति यावद्द्मवेयकं परम् ॥ २२६ निर्ग्रन्थश्रावकाणां च समुत्कर्षात्प्रजायते । आरणाच्युतदेवानामुपपादो मनोरमः ॥ २२७ दर्शनज्ञानचारित्रत्रितयस्यैकधारकाः । निर्ग्रन्था एव जायन्ते पंचानुत्तरत्तिनः ॥ २२८ ये मिथ्यात्ववशात्प्राप्ता देवत्वमतिनिन्दितम्।आ ऐशानाच्च्युतास्तेऽमी गच्छन्त्येकेन्द्रियेषु च॥२२९. ततः परं सहस्राराद्यावत्ते प्रच्युताः पुनः । अनन्तरभवे यान्ति तिर्यङमानवयोनिषु ॥ २३० ततः परं सुधर्मेण पूर्व वा स्वर्गगामिनः । तस्माच्च्युता मनुष्येषु तिर्यक्षु न कदाचन ॥२३१ ( मिथ्यादृष्टियोंकी उत्पत्तिका निर्णय । )- मिथ्यादृष्टि जीव तप करनेपर और दान देनेपरभी निश्चयसे उत्कृष्ट ज्योतिष्क, व्यन्तर और भवनवासि देवोंमें उत्पन्न होते है। जो मिथ्यादष्टि तापसी साध है वे मिथ्यात्वसहित ब्रह्मस्वर्गतकही जन्म लेते है। उनकी उत्कृष्ट गति वहांतकही है। उसके आगे कभीभी उनकी उत्पत्ति नही होती है ॥ २२२-२२३ ॥ जिन्होंने जीविकाके निमित्त जिनलिंगका आश्रय किया है, जो मिथ्यात्वको नहीं छोडते हए ब्रह्मचर्य व्रतके धारक है, वे यदि मरनेके बाद स्वर्गमें जाते है तो सहस्त्रारस्वर्गतक जायेंगे, उसके आगे अयलिगियोंकी उत्पत्ति कदापि नहीं होती है ।। २२४-२२५ ॥ दर्शन, ज्ञान और चारित्र इस रत्नत्रयकी आज्ञा फक्त धारण करनेवाले मुनि उत्कृष्ट ग्रैवेयकतक जन्म ग्रहण करते है ।। २२६ ॥ (निग्रंथ मुनि और श्रावक इनकी उत्पत्ति )- निग्रंथ मुनि और श्रावक इनका उत्कर्षसे मनोहर जन्म आरण अच्युत देवोंमें होता है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रके धारक ऐसे निर्ग्रन्थही पंचानुत्तरपर्यन्त उत्पन्न होते है ।। २२७-२२८ ॥ जिन्होंने मिथ्यात्व वश होकर ऐशान स्वर्गतक निन्दित देवत्व प्राप्त किया है, वे आयुष्य समाप्ति होनेपर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं । तथा जो मिथ्यादृष्टि जीव सहस्रारस्वर्गतक देव होकर उत्पन्न हुए हैं, वे जब वहांसे आयु समाप्त होनेपर च्युत होते हैं, तब अनन्तरभवमें तिर्यंच अथवा मनुष्यभवमें जन्म धारण करते है ।। २२९ ॥ जिन्होंने पूर्वभवमें सुधर्मसे-रत्नत्रयसे स्वर्ग प्राप्त किया है, वे आयुष्य समाप्त होनेपर वहांसे च्युत होकर मनुष्योंमें जन्म धारण करते हैं, वे तिर्यचोंमें कदापि जन्म धारण नहीं करते ।। २३०॥ लोकके भेदस्वरूपी तिर्यग्लोकका किञ्चित् वर्णन मैंने किया है। अब ऊर्ध्व लोकके आश्रयसे किञ्चित् वर्णन करना चाहता हूं ॥ २३१ ॥ १ आ. ये २ आ. सम्यग्दर्शनचारित्रत्रितयस्यैक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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