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________________ १८०) सिद्धान्तसारः (७. १८८ पल्योपमत्रयं तावन्नृणामायुरथोत्तमम् । जघन्यं जायते तेषामान्तर्मुहूर्तकं पुनः ॥ १८८ व्यावहारिकमाद्यं स्यादुद्धाराख्यं द्वितीयकम् । अद्धापल्यं तृतीयं तदिति पल्यत्रयं मतम् ॥ १८९ व्यवहारैकहेतुत्वादुत्तरस्यादिमं मतम् । व्यवहारकपल्यं तदर्थेनैव च केवलम् ॥ १९० उद्धाराख्यं द्वितीयं स्याल्लोमच्छेदैस्तदुध्दृतः । भवत्येव यतस्तस्याप्यन्वर्थः स्फुट एव हि ॥ १९१ अद्धाकालस्थितिर्यस्माज्जायते तत्त्वगोचरः । इत्यन्वर्थबलात्तस्याप्यद्धापल्यत्वमीरितम् ॥ १९२ प्रमाणाङगुलसम्भूतयोजनकप्रमाणतः । दीर्घावगाहविष्कम्भः कुसूलः पल्यमिष्यते ॥ १९३ ।। ( मनुष्यकी उत्कृष्ट तथा जघन्य आयु ।)- मनुष्योंकी उत्कृष्ट आयु तीन पल्योपम हैं, तथा उनकी जघन्य आय अन्तर्महर्तकी होती हैं ।। १८८ ।। (पल्योपम- संख्याका निर्णय । )- पल्यके तीन भेद हैं, व्यवहार पल्य, यह पहला पल्य है, दूसरा पल्य उद्धार नामक है; तथा तीसरा पल्य अद्धापल्य है। ऐसे तीन पल्य जैन शास्त्रमें माने हैं ॥ १८९ ॥ पहला पल्य आगेके पल्योंके व्यवहारका कारण होनेसे व्यवहारपल्य नामसे कहा जाता है । अतः उसका नाम अन्वर्थक है ॥ १० ॥ दूसरे पल्यका नाम 'उद्धार पल्य' ऐसा है; क्योंकि उससे निकाले गये लोमच्छेदोंसे द्वीपसमुद्र संख्याका निर्णय किया जाता है। इसलिये 'उद्धारपल्य' यह नाम अन्वर्थ है, सो स्पष्टही है ॥ १९१ ॥ अद्धा- कालको अद्धा कहते हैं। इससे स्थितिका- कालका निर्णय होता है । इसलिये यह अद्धापल्य नाम तत्त्वगोचर- यथार्थताका विषय है । अन्वर्थता होनेसे इसकोभी अद्धापल्य कहते हैं ॥ १९२॥ ( व्यवहारपल्यका स्वरूप । )- प्रमाणङगुलोंसे उत्पन्न हुए योजनके प्रमाणसे जिसकी दीर्घता अवगाह और विष्कंभ- विस्तार है ऐसा एक कुसूल गडहा खोदना चाहिये । उसको पल्य कहते है । स्पष्टीकरण- आठ यवमध्योंका एक उत्सेधांगुल होता है । इस उत्सेधांगुलको पांचसौ संख्यासे गुणनेसे प्रमाणांगुल होता है । यह प्रमाणांगुल अवसर्पिणीमें प्रथम चक्रवर्तीका आत्मांगुल माना जाता है । उस आत्मांगुलसे चक्रवर्तीके समयोंके ग्राम नगरादि- प्रमाणका निर्णय होता है। इतर समयमें जो मनुष्योंका आत्मांगुल होता है उससे ग्रामनगरादि प्रमाणका निर्णय होता है। जो प्रमाणांगुल है, उससे द्वीपसमुद्र, जगतीवेदिका, पर्वत, विमान, नरकप्रस्तार, आदिक अकृत्रिम द्रव्योंके दीर्घता, विस्तार आदि जाने जाते हैं । इस प्रमाणांगुलसे उत्पन्न हुए योजनके द्वारा किया हुआ एक प्रमाण योजनके अवगाहका, एक प्रमाण योजन दीर्घतासे युक्त और एक प्रमाण योजन विस्तारवाला ऐसा गड्ढा खोदना चाहिये उसे पल्य कहते हैं ।। १९३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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