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________________ १७२) सिद्धान्तसारः (७. १५५ ततः पूर्वेष्वसङख्येषु द्वीपेषु सागरेषु च। विद्यन्ते व्यन्तरावासास्तियञ्चोऽपि निरन्तराः ॥ १५५ तिरश्चां जीवितं तस्मिन्नेकपल्योपमप्रमम । भोगभमिर्जघन्यासौ यतो जैननिवेदिता ॥ १५६ नागेन्द्राच्च बहिर्भागे' स्वयम्भरमणार्द्धके। विदेहवत्समद्रे च कर्मभििवचक्षणः ॥ १५७ पर न मानषाः सन्ति मानषान्ते च केवलम् । द्वीपेष्वर्द्धततीयेष तेऽपि ट्रेधा भवन्त्यमी॥ १५/ आर्या म्लेच्छाश्च ते सर्वे कर्मजा भोगभूमिजाः।आर्यखण्डभवास्त्वार्या म्लेच्छाश्च म्लेच्छखण्डजाः॥ कर्मभूमिप्रसूता ये' सर्वे ते कर्मभूमिजाः । भोगभूमिसमुद्भूताः कथ्यन्ते भोगभूमिजाः ॥ १६० द्वीपेष्वर्द्धतृतीयेषु स्युस्त्रिशद्भोगभूमयः । तथा पंचदशैवात्र सन्त्येताः कर्मभूमयः ॥ १६१ गुणैरर्यन्त इत्यार्यास्तेऽपि द्वेधा भवन्ति च । केचिदृद्धीस्तु संप्राप्ताः केचित्तदितरे पुनः ॥ १६२ ६।। मानुषोत्तरपर्वतके असंख्यात द्वीप समुद्रोंमें नागेन्द्र पर्वततक व्यंतरदेवोंके निवासस्थान हैं और पशुभी सर्वत्र रहते हैं ॥ १५५ ॥ ___इन द्वीपसमुद्र में तिर्यंञ्चोंकी आयु एक पल्योपम वर्षोंकी है । इन द्वीपादिकोंको जिनेश्वरोंने जघन्य भोगभूमि कहा है ___ नागेन्द्र पर्वतके बाह्यभागमें, आधे स्वयंभूरमण द्वीपमें और स्वयंभूरमण समुद्रमें विदेहके समान कर्मभूमि है ऐसा विद्वानोंने-आचार्योंने कहा है। परंतु इनमें मनुष्य नहीं है। मनुष्य सिर्फ मानुषोत्तर पर्वततक हैं यानी ढाई द्वीपोंमें हैं और वे दो प्रकारके हैं ॥ १५७-१५८ ॥ (आर्य और म्लेच्छ मनुष्योंका वर्णन।)- आर्य और म्लेच्छ ऐसे मनुष्योंके दो भेद हैं । वे सब कर्मभूमिज और भोगभूमिज हैं । आर्यखण्डमें जो उत्पन्न हुए हैं वे आर्य हैं, और म्लेच्छ खण्डमें जो उत्पन्न हुए हैं, वे म्लेच्छ हैं । कर्मभूमिमें जो उत्पन्न हुए हैं वे सब कर्मभूमिज हैं । तथा भोगभूमिमें जो उत्पन्न हुए हैं वे सब भोगभूमिज हैं ॥ १५९-१६० ।। ___ ढाई द्वीपोंमें तीस भोगभूमियाँ हैं और कर्मभूमियाँ पंद्रह हैं। पांच हैमवत, पांच हरिक्षेत्र, पांच रम्यकक्षेत्र, पांच हैरण्यवत, पांच देवकुरु और पांच उत्तरकुरु क्षेत्र ऐसी तीस भोगभूमियाँ हैं। इनमें पांच उत्तरकुरु और पांच देवकुरु, उत्तम भोगभूमियाँ हैं। पांच हैमवत और पांच हैरण्यवत जघन्य भोगभूमियाँ हैं । पांच हरिवर्ष और पांच रम्यक मध्यमभोगभूमियाँ है । कर्मभूमियाँ पंद्रह हैं । पांच भरतक्षेत्र, पांच विदेहक्षेत्र और पांच ऐरावतक्षेत्र ऐसी पंद्रह कर्मभूमियाँ हैं ।। १६१ ॥ ( आर्योंका वर्णन ।)- जो सम्यग्दर्शनादि गुणोंसे सेवे जाते हैं उन्हें आर्य कहना चाहिये अर्थात् जिनमें सम्यग्दर्शनादि गुण उत्पन्न होते हैं, जो आर्योंके कुलमें उत्पन्न होते हैं वे आर्य हैं । वे आर्य दो प्रकारके हैं। कोई ऋद्धिको प्राप्त किये हुए हैं उनको ऋद्धि-प्राप्तार्य कहते १ आ. ज्ञेया २ आ. ते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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