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________________ १३८) सिद्धान्तसारः (-५. १५६ उदारं स्थूलमाख्यातं नानाकारधरं परम् । आह्नियमाणमाहारं तेजोजातं सुतेजसम् ॥ १५६ कर्मणां कार्यमथं च यत्कार्मणमिहोदितम् । परं परं हि सूक्ष्मं स्यादेतत्पञ्चविध क्रमात् ॥१५७ औदारिकं वैक्रियिकमाहारकमिदं वपुः । त्रिप्रकारमसंख्यातगुणाकारप्रदेशकम् ॥ १५८ क्रमशस्तैजसं तद्धि कार्मणं च शरीरकम् । कथयन्ति कथानाथाः प्रदेशानन्त्यसङगुणम् ॥ १५९ तदेवाभव्यजीवानामनन्तगुणकारकम् । अनंतप्रविभागश्च तद्रव्यं' पुनरिष्यते ॥ १६० ।। वजादिपटलस्तावद्व्याघातो नानयोः क्वचित् । सुसूक्ष्मत्वादयः पिण्डे तेजसोऽनुप्रवेशवत् ॥१६१ ठित उनके शरीरको स्पर्श कर लौटता है तब मुनिका संशय दूर होता है। यह शरीर हस्तप्रमाण होता है । धन-दृढ स्फटिकके समान रहता है। मुनिके तालप्रदेशमें रोमानके अष्टम भागप्रमाण जो उससे यह निकलता है । जिस क्षेत्रमें तीर्थकर परमदेव गहस्थावस्था में, दीक्षित छद्मस्थावस्थामें अथवा केवलीअवस्थामें होंगे उसके पास जाता है। उनके शरीरको स्पर्श कर पुनः लौटता है। उन मुनिके उस तालु छिद्रसे पुनः देहमें प्रवेश करता है तब उनका संशय नष्ट होता है और वे सुखी होते हैं । ( सर्वार्थसिद्धिकी श्रुतसागरी टीका- अध्याय दूसरा) जो तेजसे उत्पन्न होता है उसे तैजस कहते हैं । जो तेजका निमित्त है उसेभी तैजस कहते है और जो कर्मका कार्य है उसे कार्मण कहते हैं। मिथ्यात्वादि कर्मोसे यह कार्मणशरीर उत्पन्न होता है। तथा यह कर्मोकेलिये उत्पन्न होता है अर्थात कर्मोको उत्पन्नभी करता है। ये पांच प्रकारके शरीर उत्तरोत्तर क्रमसे सूक्ष्म सूक्ष्म हैं ।। १५७ ॥ ___ औदारिक, वैक्रियिक और आहारक ये तीन प्रकारके शरीर क्रमसे असंख्यात गुणाकारयुक्त प्रदेशवाले हैं । औदारिकसे वैक्रियिक शरीर असंख्यात गुणित प्रदेशवाला है । वैक्रियिकसे आहारक शरीर असंख्यात गुणित प्रदेशवाला है ॥ १५८ ॥ क्रमशः तैजस और कार्मण शरीर अनन्त गुणित प्रमाण हैं । आहारक शरीरसे तैजस प्रदेशोंकी अपेक्षासे अनंत गणित है तथा तैजससे कार्मण शरीर अनंत गुणित है, ऐसा कथानक निवेदनी, संवेजिनी आदि कथाओंके प्रतिपादक जिनेश्वर कहते हैं ।। १५९ ।। वह कार्माण शरीरका द्रव्य अभव्य जीवोंसे अनंतगुणित हैं और भव्यजीवोंसे अनन्तवां विभाग है ऐसा कहा हैं ।। १६० ॥ तैजस और कार्मण इन शरीरोंको कहींभी प्रतिबंध नहीं होता । जैसे लोहके पिण्डमें अग्निका प्रवेश उसकी-अग्निकी सूक्ष्मतासे होता है वैसे तैजस और कार्मण ये दो शरीर अतिशय सूक्ष्म होनेसे वज्रादि-पटलोमेंभी घुसकर उसमें से निकल जाते हैं । इसलिये इनके साथ रहा हुआ यह १ आ. तत् २ आ. नन्तसद्गुणम् ३ आ. तद्भव्यानाम् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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