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१३६)
सिद्धान्तसारः
(५. १४३
त्रीणि वर्षसहस्राणि परमं वातकायिनाम् । आयुर्भवति जीवानां दुर्गदुर्गतिवतिनाम् ॥ १४३ दशवर्षसहस्राणि परमायुः प्रकाशितम् । भूरुहाणां जिनाधीशैर्नानाभावविवर्तिनाम् ॥ १४४ द्वादशैव तु वर्षाणि प्रकृष्टं द्वीन्द्रियेषु तत् । एकेनोना च पञ्चाशत्रीन्द्रियेष्वायुरुत्तमम् ॥ १४५ चतुरिन्द्रियजीवानां षण्मासा ह्यायुरुत्तमम् । कर्मभूमिनरादीनां पूर्वकोटी तदुत्तमम् ॥ १४६
( जीवानां देहमानम् । ) पञ्चेन्द्रियस्य जीवस्य देहमानं निगद्यते । योजनानां सहस्त्रकमुत्कर्षेण जिनागमे ॥ १४७ तदेवाधिकमाख्यातं मानमेकेन्द्रिये पुनः । द्वीन्द्रिये द्वादशैवेदं योजनान्युत्तमं मतम् ॥ १४८ कोशत्रयप्रमाणं च शरीरं त्रीन्द्रिये परम् । चतुरिन्द्रियजीवानां एकयोजनमुत्तमम् ॥ १४९
दुःखदायक दुर्गतिमें रहनेवाले वातकायिक जीवोंकी उत्तम आयु तीन हजार वर्षोकी है ।। १४३ ॥
अनेक भवोंमें घूमने वाले वनस्पतियोंकी उत्कृष्ट आयु जिनेश्वरोंने दस हजार वर्षकी प्रकाशित की है ।। १४४ ॥
द्वीन्द्रिय जीवोंकी उत्कृष्ट आयु बारह वर्षोंकी कही है । और त्रीन्द्रिय जीवोंकी उत्कृष्ट आयु उनचास दिनोंकी कही है ।। १४५ ॥
चतुरिन्द्रियजीवोंकी उत्कृष्ट आयु छह महिनोंकी कही है और कर्मभूमिके मनुष्य आदिकोंकी उत्कृष्ट आयु एक पूर्व कोटीकी कही है ।। १४६ ।।
(जीवोंकी देहावगाहना ।)- पंचेन्द्रियजीवकी देहावगाहना जिनागममें उत्कर्षसे एक हजार योजनोंकी कही है । एकेन्द्रियकीभी अवगाहना साधिकसहस्र है । भावार्थ - स्वयंभूरमण समुद्र में स्थित महामत्स्यकी अवगाहना एक हजार योजनोंकी हैं। तथा एकेन्द्रिय कमलकीभी अवगाहना महामत्स्यके समान एक हजार योजनकीही है । द्वीन्द्रियजीवोंमें शंखकी उत्तम अवगाहना बारह योजनोंकी कही है ।। १४६-१४७ ॥
त्रीन्द्रियजीवोंमें उत्तम अवगाहना ग्रैष्मी ( चींटीकी ) तीन कोश प्रमाणकी कही है। और चतुरिन्द्रिय जीवकी उत्तम अवगाहना एक योजन प्रमाणकी कही है ॥ १४८ ॥
(गर्भादिजन्मधारि जीवोंका वर्णन । )- पोत, अण्डज और जरायुज ये सब जीव गर्भजही होते हैं । तथा देव और नारकी ये सब जीव औपपादिक देहवालेही होते हैं । पोत-जिनके ऊपर जालके समान वेष्टन नहीं होता है, जो परिपूर्ण अवयववाले योनिसे निकलतेही चलते फिरते हैं, ऐसे प्राणियोंको पोत कहते हैं। जरायुज-जालके समान जो प्राणियोंके ऊपर चर्मका वेष्टन रहता है उसको जरायु कहते हैं। ऐसे जरायुसे जिनका जन्म होता है वे जरायुज प्राणी हैं जैसे मनुष्य आदि ।
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