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________________ -४. २६२ ) सिद्धान्तसारः ( १०९ येषामलाभतो हीनास्तदाशापाशवर्तिनः । कुम्भीपाका इवानेके दन्दह्यन्ते नराधमाः ॥ २५७ तदर्थं कुर्वतां तावन्निदानं हतचेतसाम् । का गतिर्दुष्टवृत्तीनां निदानमिति निश्चितम् ॥ २५८ मानिनः पञ्च पापानि कुर्वतो न मनागपि । पापीयसो घृणाप्यस्ति महाहङकारवर्तिनः ॥ २५९ अतो मानं विमुञ्चन्ति पापमूलमनेनसः । न मानाग्निप्रदग्धेषु धर्मबीजं प्ररोहति ॥ २६० इति शल्यं त्रिधाप्येतद्वर्जयन्ति विचक्षणाः । न हि शल्यवतां जातु जायते निर्वृतिर्यतः ॥ २६१ शानां त्रितयं हृदि प्रविततं निःसारयन्तीह ये । श्रीमन्तो गुरुवाक्यवैभवमहासन्दंशकैरङ्गतः ॥ ते चारित्रपवित्रिताशयवशाः स्वर्गाश्रिताः संपदो। भुञ्जानाः कलयन्ति निर्वृतिमलं व्यापत्तिवृत्तिच्युताः इह भवति भव्य भूरिदुःखापहारी । जिनपतिमतसारी यः सदा ब्रह्मचारी ॥ है । विषयरूपी जडीबुटीके द्वारा भोग लोगोंको ठक पुरुषोंके समान विमोहित करते हैं और उनसे धर्मधन छीन लेते हैं । भोगोंकी अभिलाषारूपी पाशसे बंधे गये नराधम इनकी प्राप्ति न होनेसे दीन होकर कुंभी - पाकके समान अतिशय सन्तप्त होते हैं ।। २५५ - २५७॥ उन भोगोंकी अभिलाषासे मारा गया है, चित्त जिनका ऐसे निदान करनेवाले दुष्ट स्वभाववालोंको कौनसी गति होगी ? इस प्रकारसे निदानका निश्चय समझना चाहिये ।। २५८ ।। अतिशय अहङ्कारयुक्त पापी और मानी ऐसे पुरुषको यत्किञ्चित्भी घृणा नहीं होती है । ऐसा समझकर पापरहित सत्पुरुष पापका मूल ऐसा मानकषाय छोडते हैं । क्योंकि मानरूपी अग्निसे दग्ध हुए मनुष्योंमें धर्मका बीज अंकुरित नहीं होगा ।। २५९ - २६० ॥ चतुर पुरुष इस प्रकार तीनों शल्यों का भी त्याग करते हैं। क्योंकि शल्यधारणसे पुरुषों को कभी भी सन्तोष नहीं होता ।। २६१ ।। जो अहिंसादि व्रतरूप संपत्ति के धारक भव्य जन हृदय में विस्तीर्णतासे प्रविष्ट हुए माया, मिथ्यात्व और निदानरूप तीन शल्योंको निकालकर फेंक देते हैं, तथा श्रीगुरूपदेश - वाक्यरूप महा संडसीसे अंगमेंसे भी शल्य निकाल देते हैं, जिनका चित्त चारित्र धारण करनेसे पवित्र हुआ है ऐसे सत्पुरुष स्वर्गकी संपदाको भोगते हैं । अनंतर वहांसे च्युत होकर वे मनुष्यभव में कर्मका क्षय करके पूर्ण व्यापकताको धारण करनेवाली मुक्तिको प्राप्त करते हैं अर्थात् मुक्त होते हैं । कालको व्याप्त करनेवाली मुक्तिको अर्थात् नित्य मुक्तावस्थाको धारण करते हैं ।। २६२ ।। जो सुभव्य जिनेश्वरके मतको धारण करता है, जो सदा ब्रह्ममें अर्थात् अहिंसादि चरण करता है, अहिंसादि गुणोंको निःशल्य होकर धारण करता है, वह अनेक दुःखों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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