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________________ १००) सिद्धान्तसारः (४. १९२ यथा शुद्धमशुद्धं वास्मरन्तश्चास्मदादयः । भोजनं कुर्वते तद्वत्केवलीति न सुन्दरम् ॥ १९२ यथाख्यातं हि चारित्रं नास्मदादिषु विद्यते । तथापि तद्विशुद्धयर्थ प्रतिक्रमणमीहितम् ॥ १९३ केचिनिन्धं स्मरन्तोऽपि वर्जयन्त्यस्मदादयः । आहारं होनसत्त्वाश्च कथं पश्यन्न केवली ॥ १९४ अथाहारं गृहीत्वासौ तस्य दोषविशुद्धये । आवश्यकादिकं कर्म किं करोति न वा पुनः ॥ १९५ प्रथमे दोषवानेष द्वितीये शुद्धिमात्मनः । तद्दोषेभ्यः कथं कुर्यादिति मिथ्यात्वमञ्जसा ॥ १९६ तदाहारकथामात्रात्प्रमत्तो जायते यतिः।भुजानोऽपि न तत्स्वामी' यत्तच्चित्रं महात्मनाम्॥१९७ तदा प्रमत्त एवायं केवली तन्मताश्रितः । प्रमत्तत्वे विरोधः स्यात्कैवल्येषु सुधियाम् ॥ १९८ शरीरोपचयार्थं स प्राणत्राणार्थमेव च । क्षुदनोपशान्त्यर्थं भोजनं कुरुते प्रभुः ॥ १९९ पीडा उत्पन्न करता है ऐसा हम क्षणतक मानते हैं तथापि अनेक हिंसादि पापोंको देखते हुए केवली भगवान् कैसे भोजन करेंगे ? ॥ १९१ ।। श्वेतांबर इस प्रश्नका उत्तर देते हैं- “जैसे शुद्ध अशुद्धका स्मरण न करते हुए हम लोग भोजन करते हैं वैसे केवलीभी भोजन करते हैं" इसके ऊपर दिगम्बर जैन कहते हैं, कि यह कहना योग्य नहीं है ; क्योंकि यथाख्यातचारित्र हम आदिको नहीं है। तथापि जो भोजन करने में हमको दोष लगता है उसके निराकरणार्थ हमको प्रतिक्रमण करना पडता है। तथा अस्मदादिक कोई मुनि निन्द्यका स्मरण करते हुए हीनसत्त्व-असमर्थ आहारका त्याग करते हैं और सर्व जगत्को जानने देखनेवाले केवली आहार कैसे लेते हैं ? ॥ १९२-१९४ ।। हम आपको पूछते हैं कि, केवली आहार ग्रहण करके उसके दोष निराकरणके लिये आवश्यकादिक-प्रतिक्रमणादिक कर्म करते हैं अथवा नहीं ? पहिले पक्षमें अर्थात् आवश्यकादिक यदि वे करते हैं, तो वे दोषवान हैं । अन्यथा आवश्यकादिक करनेकी क्यों आवश्यकता पडी ? दूसरे पक्षमें यदि आवश्यकादिक नहीं करते हैं तो उन दोषोंसे वे अपनी शुद्धि कैसी करते हैं ? यदि नहीं तो मिथ्यात्वका प्रसंग शीघ्र प्राप्त होगा ।। १९५-१९६ ॥ __ आहारकी कथा विकथा है। विकथाको प्रमाद माना है । अर्थात् आहारकी कथा यदि मुनि करें तो प्रमादी होता है फिर केवली भोजन करनेपरभी प्रमादका स्वामी नहीं होते हैं, यह महात्माओंकी आश्चर्यवाली कथा समझना चाहिये ।। १९७ ।। तब श्वेतांबर मतके केवली प्रमत्तही होंगे। तथा प्रमत्त होनेपर दुर्बुद्धिवाले श्वेताम्बरोंके कैवल्यकी अनंत चतुष्टयादि बातोंमें विरोध आजायेगा ॥ १९८ ॥ (श्वेताम्बरमतके केवली शरीर पुष्ट होने के लिये भोजन करते हैं। या प्राण रक्षणकेलिये भोजन करते हैं ? अथवा भूखकी वेदनाकी शान्ति होनेके लिये भोजन करते है ? ऐसे तीन प्रश्न कर १ आ. च स्वामी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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