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________________ -४. १९१) सिद्धान्तसारः ( ९९ तदेवमन्तरायस्य स्वकार्यं केन वार्यते । तत्कार्ये ' च प्रदत्तः स्यात्सर्वज्ञाय जलाञ्जलिः ॥ १८५ उपसर्गप्रसङ्गोऽपि निषेद्धुं तस्य दुःशकः । अनन्तादिस्वभावेषु' जातु पृष्ठं न मुञ्चति ॥ १८६ असात वेदनीयेऽस्य स्वकार्यकरणक्षमे । दण्डप्ररूपणादीनां वैयर्थ्यं न कथं भवेत् ॥ १८७ नैव कारणमात्रेण कार्यं जगति जायते । अन्यथेन्द्रियमात्रेण मतिज्ञानादिमान्विभुः ॥ १८८ भोक्तुमिच्छा बुभुक्षेति मोहनीयमृते कथम् । न च सा वेदनीयस्य केवलं कार्यमुच्यते ॥ १८९ यदि स्यादिति निर्बन्धो रिरंसापि कथं न हि । सापि चेद्वीतरागाय पुनर्दत्तो जलाञ्जलिः ॥ १९० अस्तु वा तस्य वेद्यादि बुभुक्षाफलदायकम् । तथाप्यनेकहिंसादीन्पश्यन्भुङ्क्ते कथं विभुः ।। १९१ इसी प्रकार अन्तराय कर्मका कार्य कौन रोकेगा ? और उसका कार्य यदि होगा तो सर्वज्ञको जलाञ्जलि देनी पडेगी । असातावेदनीयके उदयसेभी उपसर्गका प्रसंग होगा तो उसका निषेध करना दुःशक्य होगा । अनन्तसुखादि स्वभाव प्राप्त होनेपर वह उपसर्गप्रसङ्ग कभीभी केवलीकी पीठ न छोडेगा । अर्थात् असातवेदनीयका उदय मोहनीयके बिनाभी अपना फल देने लगेगा तो उपसर्गमें अनन्तसुखादिक नष्ट होकर उपसर्गसे पीडा होने लगेगी ।। १८५-१८६ ।। असातावेदनीयकर्म अपना कार्य करनेमें यदि समर्थ होगा तो दण्डप्रतरादि समुद्घात केवलीको होते हैं वे व्यर्थ हो जायेंगे । केवलीका आयुकर्म कम और वेदनीयादि कर्म जब अधिक होते हैं तब उनको सम करनेके लिये दण्डप्रतरादि समुद्घात किया जाता है और अधिक स्थितिका वेदनीयादिक कर्म उपायशत करनेपरभी अपना फल देंगेही तो कोई मुक्त नहीं होगा और दण्डप्रतरादि समुद्घात करना व्यर्थ होगा । कारणमात्रसे कार्य होताही है ऐसा नियम नहीं है । अन्यथा केवलियोंको द्रव्येन्द्रिय होनेसे मतिज्ञानादिक प्राप्त होंगे ऐसा कहना पडेगा ।। १८७ ।। अन्तरायकर्मका कार्य होनेसे अनन्तवीर्यादि गुण नष्ट होंगे । अतः वेदनीयकर्म क्षुधा - पिपासा उत्पन्न होने में कारण होनेपरभी उसमें कार्य करनेका सामर्थ्य उत्पन्न करनेवाला मोहकर्म नहीं होनेसे वह द्रव्यकर्म वेदनीय सत्तारूपसे केवलिमें रहता है । उसका फल नहीं मिलता । अतः कारणमात्रसे कार्य नहीं होता है क्योंकि उसमें विशेषता लानेवाला मोहकर्म नहीं है ॥ १८८ ॥ 1 भोजन करनेकी इच्छाको बुभुक्षा अर्थात् भूख कहते हैं । और वह मोहनीय कर्मसे उत्पन्न होती है, विना उसके बुभुक्षा कैसी होगी ? केवल वेदनीयकर्मका वह कार्य नहीं है । यदि वह वेदनीय कर्मकाही कार्य है ऐसा कहोगे तो योनिमें रमण करनेकी इच्छा जिसको रिरंसा कहते है वहभी वेदनीयकर्मकाही कार्य कहो और वेदनीयकर्मका सद्भाव होनेसे वहभी होने लगे तो वीतरागपनाको जलाञ्जलि देनी पडेगी ।। १८९ - १९० ।। अथवा आपका कहना हम स्वीकारते हैं, केवलीको वेदनीयादि कर्म भूख, प्यास आदि १ आ. तत्कार्येषु २ आ. सुखाभावो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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