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सिद्धान्तसारः
(४. १६३
विषयाशावशातीतमनन्तं सुखमर्हति । क्षुत्क्षामक्षीणशक्तित्वात्कथं व्याहन्यते न हि ॥ १६३ रागद्वेषविमुक्तत्वात्कथं भुक्ते स केवली। कवलं गृह्यते रागात्त्यज्यते द्वेषतो यतः ॥ १६४ अथौदासीन्ययुक्तानां साधूनां भोजनादिकम् । कुर्वतां वीतरागत्वं वीतदोषत्वमस्ति च ॥ १६५ मिथ्यात्वज्वरसम्पन्नतीव्रदाघवतामयम् । प्रलापस्तूपचारेण वीतरागा ह्यमी यतः ॥ १६६ प्रवृत्तिस्तु निवृत्तिस्तु ह्याहारे जायते सदा । अभिलाषरुचिभ्यां च तद्वानाप्तः कथं ततः ॥१६७ आहोस्वित्कवलाहारमन्तरेणास्य न स्थितिः । देहस्य जायते तस्मात्केवली कवलाशनः ॥ १६८
जो विषयकी आशाके वश नहीं हुआ है उसको सुखकी प्राप्ति होती है। परंतु जो भूखसे पीडित होकर क्षीण शक्तिवाला होता है उसके सुखका नाश कैसे नहीं होता ? तथा मनुष्य भोजन क्यों करता है ? उसको भूखसे दुःख होता है उसकी निवृत्तिके लिये वह भोजन करता है ऐसा सिद्ध हुआ ॥ १६३ ॥
केवली भगवान् संपूर्ण मोहकर्मसे रहित हुए है; अतः वे रागभावना और द्वेषभावनासे पूर्ण मुक्त हुए हैं। इसलिये वे भोजन कैसे करेंगे? आहार रागभावनासे लिया जाता है और द्वेषसे उसका त्याग करते हैं। रागद्वेषोंसे मुक्त जिन पूर्णवीतराग हुए हैं ; अतः वे कवलाहार रहित हैं ॥ १६४ ॥
औदासीन्यसे युक्त साधुभी भोजनादिक करते हैं तोभी उनमें रागद्वेषरहितत्व अर्थात् वीतरागत्व और द्वेषरहितपना दिखता है अर्थात् भोजन करना रागभावनाका कार्य है और उसका त्याग द्वेषभावनाका कार्य है ऐसा नियम सिद्ध नहीं होता, अन्यथा उदासीन मुनि भोजन करते हुए क्यों दीखते हैं, ऐसी श्वेतांबरोंने शंका खडी की है । उसका उत्तर आचार्यने इस प्रकार दिया है
मिथ्यात्व-ज्वर-युक्त होनेसे तीव्र दाह जिनको हो रहा है ऐसे लोगोंका यह प्रलाप है। वे अपूर्ण वीतराग मुनिके समान पूर्ण वीतराग मुनिकोभी समझकर उनमें कवलाहारकी प्रवृत्ति सिद्ध करनेकी चेष्टा कर रहे हैं । परंतु प्रमत्तादि गुणस्थानोंके मुनियोंमें वीतरागत्व औपचारिक है, इसलिये उदासीन मुनि भोजन करते हैं; वैसे केवली भोजन करते हैं ऐसा कहना योग्य नहीं है । अर्थात् पूर्ण वीतरागता बारहवें गुणस्थानमें प्राप्त होती है । उस समय इच्छा नष्ट होनेसे वे आहार नहीं ग्रहण करते हैं, कोईभी संसारी प्राणी भोजनकी इच्छा होनेपर भोजन करता है। क्षुद्वेदनीय कर्मका उदय किसीकी अपेक्षा न करता हुआ यदि आहार में केवलीको प्रवृत्त करेगा तो प्रमत्तादिगुणस्थानोंमें तीन वेदोंका उदय होनेसे तथा कषायोंका उदय होनेसे मैथुनादिकोंमें उनको वह वेदोदय और कषायोदय प्रवृत्त करेगा परंतु वह सापेक्ष कर्मोदय अपने कार्यमें जीवको प्रवृत्त करता है, निरपेक्ष नहीं करता ऐसा यहां समझना चाहिये । केवली समस्त रागद्वेष-भाव-रहित है। मुनियोंमें रागकी मंदता है इसलिये उनको उपचारसे वीतराग कहा है । एतावता वीतराग केवलीभी आहार ग्रहण करते हैं ऐसा कहना योग्य नहीं है ॥ १६५-१६७ ॥
(फिर श्वेताम्बर ऐसा कहते हैं)- कवलाहारके बिना केवलीके देहकी स्थिति नहीं टिकेगी इसलिये वे आहारग्रहण करते हैं ॥ १६८ ।।
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