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________________ -४. ५५) सिद्धान्तसारः (७७ कालोऽप्यचेतनः किं न भावानां नवजीर्णताम् । करोति कर्म' येनेदं कुर्वत्कार्य न मन्यते ॥ ५० विचित्रसुखदुःखादि जीवानां कार्यमजितम् । विचित्रं कारणं किञ्चिद्विना नैवोपजायते ॥५१ नित्यो व्यापीत्यकर्ता च न क्रियावानमूर्तिकः । भोक्तेति गुणयुक्तोऽपि निर्गुणो यैनिगद्यते ॥ ५२ मूच्छिता इव ते लोके सुरामदनकोद्रवैः । रवोक्तमपि न जानन्ति मौन्यहं निगदन्निव ॥ ५३ यद्यकर्ता कथं भोक्ता भोक्तृत्वं विदधन्नपि । अक्रियोऽपि कथं स स्याद्वन्धाभावप्रसङ्गतः॥५४ अथेदमुच्यते नात्मा कर्मणा बध्यते क्वचित् । अमूर्तत्वात्खवत्तस्मान्नैष दोषो मतः सताम् ॥५५ कालभी अचेतन है तथा वह पदार्थों में नवीनता और जीर्णता क्या उत्पन्न नहीं करता है ? जिससे यह कर्म कुछ कार्य नहीं करता है ऐसा कहते हो ? ॥ ५० ॥ जीवोंमें नानाविध सुखदुःखादिक कार्य होते हुए दिखते हैं। वे कारणोंके वैचित्र्यसेही दिखते हैं। अर्थात् कर्ममें यदि हर्ष विषादादि उत्पन्न करनेके नाना स्वभाव नहीं होते, तो वे कार्य कैसे दृष्टिगोचर होते ? अतः कर्म अचेतन होकरभी विष, अग्नि, वायु, काल आदिके समान नाना कार्य करने में समर्थ है, इसलिये अचेतन होनेसे कर्म कार्य करनेसे असमर्थ है ऐसी भाषा योग्य नहीं है । यहाँतक चार्वाकका ' आत्मा नहीं है ' इस पक्षका खंडन कर आत्माकी सिद्धि जैनोंने की है। अब सांख्योंने आत्माका जो स्वरूप नित्य अमूर्तिक, व्यापक, अकर्ता इत्यादि रूप कहा है उसका खण्डन जैन करते हैं ( सांख्यमत आत्माके विषयमें ऐसा है )- आत्मा नित्य, व्यापी, अकर्ता, अक्रियावान्, अमूर्तिक, भोक्ता ऐसे गुणोंसे युक्त है और निर्गुणभी है ऐसा सांख्य कहते हैं, वे मदिरा, धत्तूर, और कोद्रवभक्षणसे मानो मूच्छित हुए हैं, क्योंकि वे शब्दसे स्वयं कहा हुआभी नहीं जानते । मैं मौनी हूं ऐसा कहनेवालेके समान वे दिखते है ॥ ५१-५३ ॥ यदिआप आत्माको अकर्ता अर्थात् कुछ चटपटादि अथवा सुखदुःखादिकोंका कर्ता नहीं मानते हैं, तो वह भोक्ता कैसे होगा ? भोगनेकी क्रिया करनेवाला जो है, उसे भोक्ता कहते हैं । जाननेकी क्रिया करनेवाले उसे ज्ञाता कहते हैं, देखनेकी क्रिया करनेवाला जो है उसे द्रष्टा कहते हैं, वैसे भोगनेकी क्रिया करनेवाला उसे भोक्ता मानना चाहिये । अर्थात् जानना, देखना और भोगना आदिक क्रियाओंका कर्तृत्व मानकर फिरभी आत्माको अकर्ता मानना लज्जाजनक है । अर्थात् आत्माको भोक्तृत्व, ज्ञातृत्व, द्रष्टुत्व ये कर्तृत्वके बिना मानना युक्तिसंगत नहीं है । इसलिये सांख्योंका आत्माका अकर्तृत्व मत योग्य नहीं है। यदि आत्मा अक्रियावान है, तो उसे बंधाभावका प्रसंग आवेगा । अर्थात् आत्मा बंधरहित है ऐसा मानना पडेगा । ऐसा दोष प्राप्त १. आ. कार्य येनेदं २. आ. मूजितम् ३. आ. स्वोक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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