________________
सिद्धान्तसारः
( ६. ४४
द्विघातात्ततो हिंसा प्राणिनामपकारिणी । अनिवार्या भवेत्त्रेधा वर्जनीया ततः सताम् ॥ ४४ यद्वदन्ति च नो कर्म विद्यते 'दुष्टकारणम् । तद्भावे हि लोकानां कथं हिंसादिवर्जनम् ॥ ४५ तन युक्तं हि जीवस्य हीनस्थानपरिग्रहात् । एतत्पूर्वकृतं कर्म विना नैव हि जायते ॥ ४६ अथ सत्त्वेऽपि नो कार्यं किञ्चित्तत्कुरुते स्वतः । अचेतनत्वात्कि क्वापि कुर्वन्निह घटादिकम् ॥ एषा भाषापि मोहात्मतमश्च्छन्नात्मनां मता । यतोऽस्ति साधकं साधु प्रमाणं बाधवजितम् ॥४८ विषवाय्वग्निजातानां विकारं कुर्वतां सताम् । अचेतनानां किं कर्म स्वकार्यं कुरुते न हि ॥ ४९
७६)
माननेपर शरीरको तोडकर आत्मासे अलग करनेपर हिंसा नहीं होगी तथा आत्मा और शरीर अन्योन्यसे अभिन्न माननेपर शरीरनाशसे उसकाभी सर्वथा नाश होगा । इसलिये आत्माका शरीरसे संबंध होनेसे वह शरीर से कथञ्चिद् भिन्नाभिन्न मानने से शरीरका विघात होनेसे आत्माकाभी घात होता है, हिंसा होती है और वह प्राणियोंको अपकार करनेवाली होती है । जो हिंसक है उसको वह हिंसा नरकादि दुर्गतिमें दुःख देती है । तथा जिसका घात किया जाता है वह संक्लेश परिणामसे - आर्त रौद्रध्यानसे मरण करता है । अतः वहभी संसारमें घुमता है । परंतु जिसकी हिंसा हो रही है वह यदि समदर्शी होगा तो उसमें रागद्वेष उत्पन्न न होनेसे दुर्गतिप्रापक कर्मबंध उसे नहीं होगा । प्राणिका घात होनेसे हिंसा होती है । उस हिंसाको सज्जन मन, वचन और कायसे त्यागे ।। ४३-४४ ॥
कई लोग ऐसा कहते हैं कि नोकर्मरूप शरीर दोषका कारण है यदि उस शरीरका अभाव हो जायगा तो लोगोंको हिंसादित्याग करनेकी क्या जरूरत है ? परंतु ऐसा कहना योग्य नहीं । आत्मा और शरीर एक क्षेत्रावगाही हैं । इसलिये शरीरविनाशसे आत्माका विनाश होगाही, यानी आत्मघात होगा ।। ४५ ।।
जीवने हीनस्थानका - शरीरका स्वीकार किया है और यह शरीर पूर्वकृत कर्मके विना प्राप्त नहीं होता । कदाचित् कोई यह कहेगा कि कर्म अचेतन है, इसलिये वह स्वतः कुछभी कार्य करनेमें समर्थ नहीं है । क्या घटादिक पदार्थ यहां कुछ कार्य करते हुए दिखते है ? ।।४६-४७॥
कुछ वादियोंका ऐसा कहनाभी मोहसेही है । कर्म अचेतन होकर भी अनेक प्रकारका कार्य करता है । इस विषय में बाधावर्जित और साधक प्रमाण है । जैसे- विष, वायु, अग्नि आदि पदार्थों का समूह अचेतन होकरभी मरण, हरण, दहन आदि कार्य करता हुआ देखा जाता है । वैसे यह कर्मभी ज्ञानको आच्छादित करना आदि अनेक प्रकारका कार्य करता हुआ क्या नहीं दिखता है ? ॥ ४८-४९ ॥
Jain Education International
१. आ. दुःखकारणम् २. आ. कुर्वन्तीह घटादयः ३. आ. विषमद्याग्निजातानां
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org