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________________ ७४) सिद्धान्तसारः (४. ३४ विजातिभ्योऽपि भूतेभ्यश्चेतनो न विरुध्यते । पिष्टोदकगुडादिभ्यो मदशक्तिरिव ध्रुवम् ॥ ३४ मुक्त्वेहलौकिकं सौख्यं व्रतैः क्लिश्यन्त्यहनिशम् । ही वञ्चितास्त एवास्मिन्नाशापाशवशीकृताः॥ अहिंसादिव्रतं तेषां नोपपत्तिमिति तत् । हिस्याभावे क्व सा हिंसा हिंसाभावे क्व तद्वम् ॥३६ नास्ति जीव इति व्यक्तं यद्वदन्तीह दुधियः । तन्मिथ्यैव यतो जीवः प्रत्यक्षेणैव सिध्यति ॥ ३७ स्वसंवेदनवेद्यत्वात्सुखदुःखादिवद्ध्वम् । जीवे सिद्ध कथं नैते नास्तिका दुष्टवादिनः ॥ ३८ हैं । अतः भूतोंसे चेतन पदार्थ उत्पन्न नहीं होता ऐसा जैनोंका कहना मिथ्या है, अर्थात् भूतोंसे चलनेवाला, बोलनेवाला, लिखनेवाला अनेक स्वभावोंका धारक चेतन पदार्थ उत्पन्न होता है ऐसाही मानना चाहिये । इसलिये जीव नामक चेतन पदार्थ भूतोंसे अलग नहीं हैं ॥ ३३ ॥ “पृथ्वी, हवा आदिक भूत अचेतन हैं और जीव चेतन है, अतः पृथ्वी आदिक भूत चेतनसे विरुद्ध होनेसे विजातीय है तो भी उनसे जीवकी उत्पत्ति होना विरुद्ध नहीं है, क्योंकि पिष्ट, पानी, गुड आदिक पदार्थोंमें मदशक्ति न होनेपरभी उनसे वह निश्चयसे उत्पन्न होती है " ॥ ३४ ॥ " परलोकसुखके आशापाशने जिनको वश किया है ऐसे लोग इह लोकसंबंधी स्त्री चन्दन पुष्पमालादिकोंका सुख छोडकर व्रतोंसे स्वयंको हमेशा पीडित करते हैं, वे लोग फसाये गये हैं। ऐसे लोगोंके अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य आदि व्रतोंकी उपपत्ति सिद्ध नहीं होगी। यदि जीव होता तो अहिंसादिव्रतोंकी सफलताभी होती । जीव नहीं होनेसे व्रतपालन केवल क्लेशरूपही है। हिंस्यही नहीं है तो हिंसा पापरूप कैसे सिद्ध होगी? अर्थात जीव पद तो उसकी हिंसा होती । उसकी सिद्धि न होनेसे हिंसाकाही अभाव हुआ है तो अहिंसाव्रतकी सिद्धि कहां होगी " यहांतक चार्वाकका पूर्वपक्ष हुआ ।। ३५-३६ ॥ ( आत्मतत्त्व है ऐसा जैनोंका सिन्धातपक्ष । )- 'आत्मा नहीं है ' ऐसा जो दुर्बुद्धिमिथ्यात्वग्रसित बुद्धिवालोंका स्पष्ट कहना है वह मिथ्याही है, क्योंकि जीव प्रत्यक्ष प्रमाणसेही सिद्ध होता है । उसके लिये अन्य प्रमाणोंकी आवश्यकता नहीं । जैसे सुखदुःख हर्षविषादादि स्वसंवेदनसे जाने जाते हैं वैसे आत्माभी स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे अनुभवमें आता है। मैं सूखी हं, । दु:खी हूं, ऐसा अनुभव प्रतिव्यक्तिको खुदही उत्पन्न होता है। मैं जीव हं यह अनुभवभी स्वयंको स्वयं आता है। यदि शरीरसे भिन्न आत्मतत्त्व न होता तो ऐसा अनभव कदापि नहीं आसकता । इस स्वसंवेदनसे आत्मतत्त्व सिद्ध होनेसे ये चार्वाक दुष्टवादी क्यों नहीं ? अर्थात् मिथ्यात्व कर्मका तीव्र उदय होनेसे आत्मा नहीं है ऐसी इनकी विपरीत बुद्धि हो गयी है ॥ ३७-३८ ॥ जीवको प्राप्त हुआ शरीर पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि ऐसे अनेक भूतोंसे बना हुआ है वैसा आत्मा इन भूतोंसे नहीं बना हुआ है अतः वह इनका कार्य नहीं है । तथा ये भूत अचेतन है । अतः इस चेतनकी उत्पत्तिमें ये उपादानकरण नहीं हो सकते । अचेतनोंका कार्य अचेतनही होगा। चेतनके कार्य चेतनही होते हैं । अर्थात् सजातीय कारणसे सजातीय कार्यही उत्पन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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