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________________ १.२०.१०] हिन्दी अनुवाद मनमें मन्त्रणा व चिन्तन करके राजाने उस कुमारसे कहा-हे कुमार, तुम अपने परिचयसहित मुझे निश्चयपूर्वक तथा मिथ्या बातोंको छोड़कर वह सब वृत्तान्त सुनाओ कि तुम यहाँ तक कैसे पहुँचे ? क्या तुम अपने राज्यसे भ्रष्ट होकर रिपुओंके भयसे अपनी प्रजाको छोड़कर राजधानीसे भाग आये हो ? तुम राजपुत्र ही तो हो, न कि कोई धूतं या शठ, जो अपने वेशको छिपाकर मेरे नगरमें आये हो? यह कूलकी आनन्दभूत कुमारी किसको पुत्री है ? तुम नववयस्क मानवोंमें एक विशेष युवक होते हुए भी इतने मानहीन क्यों हो गये हो? लावण्यवान् होते हुए भी किस हेतु घरसे निकल पड़े हो ? शिशुओंको भी शिक्षा तथा शिशुओंको भी दोक्षा और गुणोंकी परीक्षा, यह महान् अद्भुत बात है, बड़ा हो आश्चर्य है। तुम इस कुमारीके सहित इस सुधासे पुते हुए गृहोंसे युक्त मेरे इस नगरमें क्यों आये हो ? हे कुमार, तुम मुझे पापको क्षय करनेवाली तथा कानोंको सुखदायो अपनी कथा कहकर सुनाओ ।। १८॥ १९. कुमारका राजाको उत्तर कुमारके दर्शनसे राजाको हर्ष उत्पन्न हुआ। किन्तु उसे उस उत्तम श्रावक श्रेष्ठ कुमारने उत्तर दिया-अन्धेको नृत्य दिखाना, बहरेको गीत सुनाना, ऊसर क्षेत्रमें बीज बोना, नपुंसक पुरुषपर लगा हुआ तरुणी स्त्रोका कटाक्ष, विविध प्रकारका भोजन जो लवणरहित है, अज्ञानके होते हुए तीव्र तपश्चरण, बल और सामयंसे विहीन पुरुषका शरण, समाधिरहित मनुष्यको सल्लेखना, निर्धन मनुष्यका नव-यौवन, भोग न करनेवाले मनुष्यका संचित द्रव्य, स्नेहहीन पुरुषमें श्रेष्ठ मानिनी स्त्रीका रमण और अपात्रको दिया हुआ दान, मोहरूपी रजसे अन्धे हुए मनुष्यको धर्माख्यान तथा दुर्जन एवं बकवादो मनुष्यका गुणानुवाद, यह सब अरण्य-रोदनके समान शून्य होकर निष्फल जाता है। जो गुरु मस्तकके शूल सदृश जिनधर्मके प्रतिकूल मनुष्यको परमागमका उपदेश देता है वह अपने शुद्ध वचनोंको मानो सर्पको घृत और दूध देकर स्वयं नाशको प्राप्त होता है ।। १९ ।। २०. राजाको उपशम भावकी प्राप्ति कुमार कहते गये-जो मूछित होता है उसे ठण्डा पानी और पवन दिया जाता है। उसी प्रकार जो उपशान्त हो उसीको धर्म-श्रवण कराया जाता है। सूखे वृक्षको सींचनेसे क्या लाभ ? जो विनयहीन है उसे सम्बोधित करनेसे क्या फल ? हे राजन्, हमारी कथा एक धर्मविद्या है और वह उत्तमपुरुषों द्वारा श्रवण करने योग्य और पूज्य है। कुमारके ये वचन सुनकर राजा अपने मनमें उपशान्त हो गया; उसने ढोल-नगारोंको बन्द करा दिया। चामुण्डा देवीके बजते हए प्रचण्ड डिण्डिम ( डमरु ) तथा महान् कि लकिलाहट और कलकलका भी निवारण करा दिया। वह भयंकर हिंसाका खिलवाड़ भी छोड़ दिया और समस्त लोग शान्त और निश्चल हो गये । वे न चलते थे, न डोलते थे, जैसे मानो लेप कर बनाये गये हों, अथवा जैसे मानो भित्तियोंमें चित्रकार द्वारा लिखे गये हों। तब अभयरुचिने अपनी मधुर वाणी में कहा-हे देवोंके प्रिय राजन्, सनिए। मैं ने जो कुछ देखा, सुना और अनुभव किया है वह सब मैं कहता हूँ। हे राजन्, कान देकर सुनो। इसी भरत क्षेत्रमें अवन्ति नामका प्रदेश है जिसने वहाँ के निवासियोंको सभी इन्द्रिय विषयोंका उपभोग कराया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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