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________________ १. ७. ५ ] हिन्दी अनुवाद कोल मार्ग की दीक्षा देता था । उसके उपदेश नाना प्रकारके थे और वह बड़ा दम्भधारो था । वह हुँकार करता हुआ घर-घर घूमने लगा । वह अपने सिरपर पचरंगी टोपी लगाये हुए था जो उसके दोनों कान ढककर सटके बैठी थी । उसके पास एक बत्तीस अंगुल प्रमाण डण्डा था जिसे वह हाथसे उछालकर तीव्रतासे फिर ग्रहण कर लेता था । उसके गले में एक विचित्र योगपट्ट सज रहा था तथा पैरोंमें चमचमाती हुई खड़ाऊँकी जोड़ी थी । वह एक तड़-तड़ शब्द करनेवाला सींग भी लिये था जिसके अग्रभागको तोड़कर उसने अच्छा कर लिया था। वह बिना पूछे ही अपनेआप अपने माहात्म्य और गर्वका व्याख्यान एवं अपनी ही स्तुति करता । वह कहता - मेरे सामने ही चार युग बीत गये । फिर भी में जरा ग्रस्त नहीं हुआ, मैं कल्पधारी जो ठहरा। नल, नहुष, वेणु, मान्धाता तथा और भी अन्य जो राजा-महाराजा हुए वे सब मेरे देखते-देखते इस पृथ्वीका उपभोग करके चले गये । मैंने राम-रावणकी वह भिड़न्त भी देखो और निशाचरोंको समरांगण में धराशायी होने भी देखा । मैंने युधिष्ठिरको उसके बन्धुओं सहित देखा तथा वह दृश्य भी देखा जब दुर्योधन ने कृष्णकी बात को नहीं माना । में चिरजीवी हूँ, इसमें सन्देह मत करो । मैं सब लोगोंको शान्त कर सकता हूँ । मैं चाहूँ तो सूर्यके विमानको चलते-चलते थाम दूँ तथा चन्द्रकी चांदनीको एकदम ढाँक दूँ । मुझे सभी विद्याएँ स्फुरायमान हैं एवं बहुतसे मन्त्र-तन्त्र मेरे आगे-आगे चलते हैं । जब यह कौलाचार्य ऐसी बातें करता फिरता था तब वह वार्ता मारिदत्त नरेशके कानों तक भी पहुँची। राजाको कौतूहल उत्पन्न हुआ कि जब ऐसा रहस्यपूर्णं पुरुष आया है तो उसे शीघ्र देखना चाहिए। उसने अपने एक श्रेष्ठ गुणवान् मन्त्रीको भेजा । वह गया और भैरवानन्दसे मिला । मन्त्रीने आदेशपूर्वक कहा कि आपके दर्शनसे राजाको प्रसन्नता होगी । भैरवानन्द शीघ्र राजा के पास गया जहाँ राजा सभाके मध्य उपेन्द्रके समान बैठा था । राजा योगीश्वरको देखते ही प्रसन्न होकर सिंहासन से उतरा तथा सम्मुख जाकर भूमिपर दण्डके समान लेटकर उसने दण्डवत् प्रणाम किया । भैरवानन्दने राजाको आशीर्वाद दिया और कहा, में भैरव हूँ व तुमपर हृदय से प्रसन्न हुआ हूँ । राजाने उसे तुरन्त उच्चासनपर बैठाया और पैर पड़ते हुए वह उसकी स्तुति करने लगा - हे देव, आप प्रजाको सृष्टि और संहार करने में समर्थ हैं । आप कोलमार्गंचारी योगीश्वर हैं | आप चिरजीवी हैं । अतएव जो कुछ हुआ है और जो होनेवाला है अर्थात् भूत-भविष्य की सब बातें प्रकट कीजिए । हे स्वामिन्, आप मुझपर प्रसन्नभाव रखकर मुझे अपना महाप्रसाद प्रदान कीजिए । ९ राजाकी बातें सुनकर योगीश्वर अपने मनमें सन्तुष्ट हुआ। वह दुष्ट सोचने लगा कि अब मेरा इन्द्रियसुख पूरा हो जायेगा । मैं जो कुछ मनमें उद्दिष्ट करूंगा वह भोग सकूँगा । अब मेरा आदेश सम्पन्न होगा । ७. भैरवानन्दका आदेश 1 फिर वह योगी बोला, हे राजन्, मुझे सभी ऋद्धियां प्राप्त हैं । मेरी विद्यासिद्धि क्षणमात्रमें स्फुरायमान हो जाती है । मैं चाहे जिसका अपहरण कर सकता हूँ व चाहे जो कार्यं कर सकता व करा सकता हूँ । में समस्त प्रशस्त गुणोंसे युक्त होकर धरातलपर प्रकट हुआ हूँ । कोई भी जो-जो वस्तु तुम मांगोगे वही वही महा पदार्थ में दूँगा । इसपर राजा प्रफुल्लित मुख होकर बोला- आप प्रसन्न होकर मुझे खेचरत्व अर्थात् आकाश में उड़नेकी शक्ति प्रदान कीजिए। तब भैरवानन्दने कहा - में आपमें आकाशगामिनी शक्ति उत्पन्न कर सकता हूँ, यदि आप मेरे परमोपदेशको बिना किसी हिचक के स्वीकार कर लें । हे राजकुलरूपी कमलके सूर्य, हे दुर्निवार वेरियोंके निवारणार्थ निश्शंक गजेन्द्र, यदि तुम अपने परिवार के लोगोंकी बातें न सुनो तो तुम निस्सन्देह आकाश २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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