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________________ १. ६. २] हिन्दी अनुवाद व उत्सवोंके स्वरोंसे गूंज रहे थे। वहाँ नये केसररसके लेपसे लाल, धारण की हई मोतियोंकी मालाओंसे देदीप्यमान, गुरु और देवके चरण-कमलोंके भक्त, श्रीमन्त, शान्त और स्वस्थ सभी मनुष्य देवोंके समान थे। वहाँ कहीं भी दुःखी मनुष्य दिखाई नहीं देते थे। वहाँ मारिदत्त नामका राजा था जिसकी विजय-दुन्दुभीका नाद नित्य सुनाई पड़ता था। वह राजा क्रोधाग्निसे प्रज्वलित शत्रु माण्डलिकोंके अभिमानकी ज्वालाको खण्डित करता था तथा लक्ष्मी उसके कोशरूपी घटको धारण करती हुई आज्ञाकारी गृहदासीके सदृश आचरण करती थी ॥४॥ ५. राजा मारिदत्तका वर्णन राजा मारिदत्त दानशीलतामें कर्ण और वैभव में साक्षात् इन्द्र ही था। वह रूप में कामदेव, कान्तिमें चन्द्र, दण्ड देने में यमके समान हो प्रचण्ड एवं शत्रुओंके सैन्यरूपी वृक्षका दलन करने योग्य बलमें वायुरूप ही था। ऐरावत हस्तीको सँड़ सदश स्थूल और प्रचण्ड भुजाओंको धारण करता हुआ वह राजा अपने सीमावर्ती नरेशोंके मनमें दाह उत्पन्न करता रहता था। वह भौंरोंके समान काले केशोंसे शोभायमान था और बड़े बलशाली भट पुरुषों में भी श्रेष्ठ योद्धा था। उसका वक्षस्थल नगरकोटके द्वारके कपाट सदृश अतिविशाल था। वह प्रभु, मन्त्र और उत्साह इन तीनों राज-शक्तियोंका पालन करता था। उसके नेत्र भी विशाल थे। वह लाखों पुरुषोचित लक्षणोंसे सम्पन्न था। उसको मुखमुद्रा सुप्रसन्न तथा उसका शब्दोच्चारण मेघगर्जनके समान गम्भीर था । अपने ज्ञान-विज्ञानके तेजसे वह राजा सूर्यरूप तो था, किन्तु वह धर्मके अर्थको नहीं जानता था। ऐसे मारिदत्त राजाके समस्त वयोवृद्ध पुरुष यशशेष (मरणको प्राप्त) हो चुके थे । जो बचे थे वे सभी तरुण व अहंकारी थे। राजा अपने समवयस्क भटोंके साथ भ्रमण किया करता था। उसे ऐसा एक भी साथी प्राप्त नहीं हुआ जो परिपक्व-बुद्धि हो। जहाँ योवनका मद और धनका मद अधिक होता है वहां घोर अन्धकार ही अन्धकार फैलता है। वहां सारगर्भित सुखका मार्ग कहां दिखाई दे जहाँ बुद्धिमान् पुरुषरूपी सूर्य की किरणोंके बिना ही विचरण किया जा रहा हो? कभी तो वह राजा घोड़ेपर सवार होकर भ्रमण करता और घोड़ोंके तीक्ष्ण खुरोंसे धराको रौंदकर खोद डालता था। कभी वह हाथीपर चढ़कर रंगभूमिमें रमण करता और अंकुशके द्वारा उसे नाना प्रकारको चालें चलाता। वह उमंग भरे चित्तसे वनमें क्रोडार्थ भ्रमण करता। कभी रमणी नारियोंके पयोधरोंकी ओर विचित्र रूपसे ( आश्चर्यपूर्वक ) देखता। लतामण्डपमें वह कामिनी स्त्रीके साथ भोगासन बाँधकर रति-सुखका उपभोग करता। फिर वह कुत्तोंको साथ लेकर कर्कश प्रवेश करता और मग-शूकरोंका मार्ग ढूढ़ता। कभी वह अपने सम्मुख होते हए गीतको स्वयं अकेले में निर्भीक होकर गाता। वह राजा ताल बजा-बजाकर अपनी गहिणियोंको नच व स्वयं ही बाजे बजाता। इस प्रकार वह स्वच्छन्दतासे मनमाने काम करता था। भला बधज के बिना उसे धर्म कहाँसे मिले ? उसके राज्य करते और प्रजापालन करते हुए एक बार राजपुर में महामन्त्रियोंके साथ एक कौलाचार्यका आगमन हुआ ।।५।। ६. कौलाचार्यका वर्णन वह भैरवाचायं त्रैलोक्यको भयाकुल करनेवाला, असत्यका भण्डार, अभिधानसे सर्वग्रासी होता हुआ उस नगरमें भिक्षानिमित्त भ्रमण करने लगा। वह अपने अनुगामी लोगोंको शिक्षा व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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