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१. ४.८ ]
हिन्दी अनुवाद सम्यग्ज्ञानका विधान किया है । चमेलीको पुष्पमाला समान सुगन्धयुक्त मल्लिनाथ, जय हो तथा जय हो मुनिसुव्रतकी जिन्होंने उत्तम व्रतोंको मर्यादा बाँधी है। जिन्हें देवसमूहोंके इन्द्र भी नमन करते हैं ऐसे हे नमि, आपकी जय हो एवं जय हो हे नेमि, आपको जो धर्मरूपी रथके चक्रकी नेमि हैं। संसारके बन्धनोंको काटनेवाले कृपाण हे पाश्र्वनाथ, जय हो आपको तथा जय हो वर्धमान तीर्थकरकी जिनका यश अब भी वृद्धिशील है।
इस प्रकार मैं उन तीर्थंकरोंके समूहका आश्रय लेता हूँ व उनको प्रणाम करता हूँ जिनके नाम सुविख्यात हैं, जो पापोंका शमन करते हैं, देवसमूहों द्वारा वन्दित हैं, जो अनादि निधन हैं, तथा कुवादियोंको शान्त करनेवाले हैं ।।२।।
३. यौधेय देशका वर्णन अब मैं विचित्र वृत्तान्तसे युक्त जो जैसा घटा वैसा यशोधरनरेशके चरित्रका वर्णन करता हूँ। अनेक द्वोपों और महासमुद्रोंसे मण्डित तथा प्राणियोंसे भरपूर इस तिर्यग्लोकमें विस्तीर्ण जम्बूद्वीप है, उसमें सूर्यकी उष्ण किरण-पुंजसे पूरित भरत क्षेत्र है और उसमें यौधेय नामका देश है मानो धराने दिव्य वेष धारण किया हो । वहाँ नदियोंमें भौंरें पड़ता हुआ जल ऐसा प्रवाहित होता था जैसे कामिनियोंके समूह हाव-भाव-विभ्रम दिखाते हुए चल रहे हों। वहां नीले बन्धनोंसे युक्त घासके पुले ,गों-सहित ऐसे थे जैसे नील नेत्रोंसे प्रेमकी सूचना देनेवाली कामुक स्त्रियोंके वर्णनसे युक्त कुकवियोंको कविताएँ हों। वहाँके उपवन पुष्पों और फलोंसे परिपूर्ण थे मानो महोरूपी कामिनीका नया यौवन हो हो। ग्वालोंके मुखोंसे चूसे गये फल ऐसे मधुर थे जैसे सत्कर्मों के फल । वहाँ गायों और भैंसोंके झुण्ड सुखसे बेठे धीरे-धीरे रोमन्थणमें गाल चलाते हुए दिखाई देते थे। वहाँ गन्नेके खेत अपना रस दिखलाते हुए मानो पवनके वेगसे नाच रहे थे। वहाँकी पको धान कणोंके भारसे झुक रही थी, तथा शतदल कमल भौरोंसे युक्त दिखाई देते थे। वहां शुकोंके झुण्ड धानके कण चुनते एवं खेतोंको रखानेवाली गृहस्थोंकी कन्याओंको प्रत्युत्तर दे रहे थे। छुछकारनेकी ध्वनिसे मनोरंजन करनेवाले पथिकजन मार्गमें पैर आगे बढ़ा ही नहीं पाते थे। वहाँ ग्वालोंके गीतोंसे मनोमुग्ध होकर वनमें मुगसमूह कान देकर सुनने में मग्न हो जाते थे। वहांके ग्राम, पुर और नगर, जन. धन और धान्यसे परिपूर्ण थे. एवं उद्यान अपनी-अपनी सीमाओंमें हरे-भरे थे।
ऐसे उस यौधेय देशमें राजपुर नामक मनोहर नगर था जहाँके घर रत्नोंके संचयसे पूर्ण थे तथा जो अपने पवनके वेगसे चलायमान तथा आकाशतलमें मिलते-घुलते ध्वजोंसे मानो अपनी भुजाओं द्वारा स्वर्गको छूता हुआ दिखाई देता था ॥३॥
४. राजपुर नगरका वर्णन वह राजपुर नगर सरस उपवनोंसे आच्छादित होता हुआ मानो कामदेवके सरस बाणोंसे विद्ध था। देवालयोंमें वास करनेवाले पारावतोंकी कर्ण-मनोहर ध्वनियों के बहाने मानो वह पुर गा रहा था। नगरका बाहरी मैदान श्रेष्ठ हाथियोंके मदसे गीला हुआ ऐसा शोभायमान था जैसे मानो प्रवासो प्रेमियोंकी प्रियाओंकी पंक्ति । वहाँके सरोवरोंके हंस युवती स्त्रियोंके नूपुरोंकी ध्वनिसे आकृष्ट होकर उन्होंके मार्गका धीरे-धीरे अनुगमन कर रहे थे। वह पुर यथार्थतः तो वहाँके नरेशके भुजारूपी खड्गसे सुरक्षित था, तथा गोणरूपसे दुर्गकी परिखा द्वारा । आक्रमणकारी वैरियोंके मुद्गरों और भालोंको कुण्ठित करनेवाले श्वेत कोटसे घिरा हुआ दुर्ग मानो अपने स्वामोके यशसे वेष्टित था। सौभाग्यको समस्त सामग्रीसे भरपूर वह नगर मानो संसारभरको सार वस्तुओंका पुंज ही था। कोटके चारों द्वार डोलते हुए मरकत मणियोंके तोरणोंसे ऐसे शोभायमान थे, जैसे मणिमय हारोंसे युक्त पुरवासियोंके मुख । वहां दो, तीन, पांच व सात मंजिलोंके घर धवल मंगल
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