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________________ यशोधरचरित [हिन्दी अनुवाद ] सन्धि १ यशोधर-जन्म-विवाह-राज्याभिषेक १. कविका आत्म-निवेदन त्रैलोक्यको लक्ष्मीके स्वामी, अतिशयवान्, काम-विनाशक, विशुद्ध-दृष्टि तथा इन्द्र द्वारा नमस्कृत अरहन्त परमेष्ठीके चरण-युगलको प्रणाम करके अभिमानमेरु कवि पुष्पदन्त कौण्डिन्य गोत्ररूपी आकाशके सूर्य तथा वल्लभ नरेन्द्रके निजी महत्तर नन्नके प्रासादमें निवास करते हुए बिचारते हैं कि पापका प्रभाव बढ़ानेवाली धन और नारीकी कथाएँ बहुत हो चुकी। अतएव अब मैं किसी ऐसी धर्म-सम्बन्धो कथा कहूँ जिसके कथनसे मुझे मोक्ष-सुख प्राप्त हो । (जम्बू द्वीपके भरत. विदेह और ऐरावत इन तीन क्षेत्रोंको क्रमशः ) पांच. पांच और पाँच अर्थात पन्द्रह भमियाँ दयाकी सखियां हैं और उन्हीं में धर्मकी उत्पत्ति होती है। इनमें भी विदेह क्षेत्रको पाँच भूमियोंमें धर्मकी स्थिति शाश्वत है, किन्तु शेष दशमें धर्म उत्पन्न भी होता है और विनष्ट भी तथा उनमें भोगभूमि व कर्मभूमिके रचनानुसार कल्पवृक्ष भी पुनः-पुनः उत्पन्न और विलुप्त होते रहते हैं। कालकी अपेक्षा वर्तमान चौबीस तीर्थंकरोंमें प्रथम धर्म-प्रवर्तक हुए राजाधिराज पुरुदेव ( आदिनाथ ) स्वामो जिनका ध्वजचिह्न है श्वेत वृषभ तथा जिन्होंने चारों देव-निकायोंको आनन्दित किया। हे देव, आपने असि, मसि, कृषि आदि वृत्तियों के अनुष्ठान तथा धन-दानके द्वारा जनताका पोषण किया। आप क्षत्रिय धर्मके प्रवर्तक हुए। एवं तपश्चरण क्रिया तथा केवलज्ञानके प्रभावसे आप ही श्रेष्ठसे भी श्रेष्ठ परमात्मा बने ।।१।। २. चतुविशति स्तुति जय हो आपको, हे ऋषभ, जिनके चरणों में ऋषीश्वर भी नमन करते हैं। जय हो, हे अजित, जिन्होंने शरीरके दोषों तथा राग-द्वेष आदि विकारोंको जीता है। सम्भवकी जय हो जिन्होंने जन्म-मरणको परम्पराको विनष्ट किया, तथा अभिनन्दनको जय हो जिन्होंने जीवके आचार-व्यवहारको आनन्दप्रद बनाया। जय हो, हे सुमति, जिन्होंने सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानरूपी प्रकाश प्रदान किया। लक्ष्मीके निवास पद्मप्रभ, आपकी जय हो। जिनका शरीर सुन्दर पाश्र्वोसे सुशोभित है ऐसे हे सुपार्श्व, जय हो आपकी, तथा जय हो उन चन्द्रप्रभकी जिनका मुख चन्द्रकी आभायुक्त है। जिन्होंने अपने अन्तरंग शत्रुओंका दमन किया है वे पुष्पदन्त जयवन्त हों तथा प्रवचनकी शीतल शैलीके विधाता शीतलको जय हो। उज्ज्वल किरणसमूहयुक्त सूर्य रूप हे श्रेयांस, आपकी जय हो और जय हो पूज्यों द्वारा ज्य वासुपूज्य की। हे निर्मल गुणोंकी श्रेणोके आश्रय विमल, जय हो आपकी, एवं जय हो उन अनन्तकी जो अनन्त ज्ञानके धारक हैं। हे धर्मरूपी तीर्थके संस्थापक धर्मनाथ, जय हो आपकी तथा जय हो उन शान्तिनाथकी जिन्होंने लोकको शान्तिके लिए धर्मरूपी छत्रका विधान किया है। कुन्थु आदि शरीरधारी जीवोंपर दया करनेवाले कुन्थुनाथ, आपको जय हो, एवं जय हो उन अरहनाथकी जिन्होंने अलक्ष्मीका अपहरण तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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