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जसहरचरिउ
मिलानसे स्पष्ट हो जाती है। यही नहीं, पश्चिम एशियाके भिन्न-भिन्न भागोंसे कुछ ऐसे लेख भी मिले हैं जिनसे पता चलता है कि उस कालमें अपने आजके अनेक सूप्रचलित नामों व शब्दोंका हिन्द-ईरानी समाज कैसा उच्चारण करता था। जिन देवोंको अब हम सूर्य, इन्द्र और वरुण कहते हैं उन्हें आजसे चार हजार वर्ष पूर्वके आर्य लोग 'सुरिअस' 'इन्तर' और 'उरुवन' कहते थे। हमारे आजके एक, तीन, पाँच और सात उस कालके अइक, तेर, पंद्ज और सत्त हैं । इन शब्दोंमें हमें संस्कृतसे भिन्न प्राकृत भाषाकी प्रवृत्तियाँ स्पष्ट दिखाई देती हैं।
___ भारोपीय भाषाकी इस हिन्द-ईरानी शाखाके प्रायः साथ ही या कुछ आगे-पीछे हित्ती और तुखारी नामकी शाखाएँ पृथक् हुई व तत्पश्चात्, ग्रीक आदि यूरोपीय शाखाएँ । इन शाखाओंका हिन्द-ईरानी शाखासे मुख्य भेद यह है कि आदिम भारोपीय भाषामें क वर्गको जो कण्ठ्य, कण्ठ-तालव्य और कण्ठ-ओष्ठय, ये तीन श्रेणियाँ थीं, उनमेंसे कण्ठ-तालव्य श्रेणीका हिन्द-ईरानी व उसीके समान स्लावी रूसी आदिमें ऊष्मीकरण हो गया है, अर्थात् क्य, ग्य आदिका उच्चारण स् होने लगा और इस प्रकार वे 'केन्तम' और 'सतम्' वर्गोंमें विभाजित हो गयीं। उदाहरणार्थ, जिस भारोपीय मूल भाषाका स्वरूप उसकी उक्त शाखाओंके तुलनात्मक अध्ययनसे निश्चित किया गया उसमें 'सौ' के लिए शब्द था "क्यंतोम्" जिसका रूपान्तर 'केन्तुम्' वर्गकी लैटिन शाखामें केन्तुम्, ग्रीकमें हेक्तोन् तथा तोखारीमें 'कंतु' हुआ। परन्तु 'सतम्' वर्गीय रूसीमें 'स्तौ', स्लावमें सूतो, अवेस्तामें सवअम् तथा वैदिकमें शतम् हो गया। इस क और स के परस्पर मूल एकत्वके मर्मको समझ जानेपर अंगरेजोके 'कामन' और 'कमेटी' तथा हिन्दीके 'समाज' और 'समिति' जैसे शब्दोंके रूप और अर्थमें कोई भेद एवं उनके पैत्रिक एकत्वमें कोई सन्देह नहीं रहता। भारोपीय 'क्व' यूरोपीय भाषाओंमें 'Q' वर्णके रूपमें अवतरित हुआ। किन्तु किन्हीं स्थितियों में वह अँगरेजीमें 'व्ह' [ whe ] के रूपमें पाया जाता है। जैसे who, what, where आदि । वही भारतीय आर्यभाषामें कहीं क ही रहा जैसे कः किम् क्व आदि, और कहीं च में परिवर्तित हआ, जैसे Quarterim चत्वादि, Quit, च्युत, Quiet शान्त ।
यदि हम इन और ऐसे ही अन्य अनेक वर्ण-परावर्तन व उच्चारण-भेदके नियमोंको समझ लें, तो यूरोपीय और भारतीय आर्यभाषाओंमें चामत्कारिक समानत्व व एकत्व दिखाई देने लगता है। तब तरु और ट्री, फुल्ल और फ्लावर, शैल और हिल-शाला और हॉल आदिमें तो कोई भेद रहता ही नहीं, किन्तु आई और अहं, दाउ और त्वं, ही, शी और इट् एवं सः, सा व इदं, दैट व दिस और तत् व एतद्की विषमता भी दूर हो जाती है । Rama's mother और रामस्थ मातामें तो कोई भेद है ही नहीं।
जब हिन्द-ईरानी शाखा दो में विभाजित होकर अपना अलग-अलग विकास करने लगी तब वैदिक और अवैदिक भाषाओं में भी अन्तर पड़ गया। इस अन्तरमें प्रधानता है ईरानीमें स का ह उच्चारण, जैसे असुर, अहुर-सप्त-हप्त, सिन्ध-हिन्दु आदि । और दूसरे उसकी वर्ण-विरलताकी प्रकृति जिससे उसके शब्दों व पदोंमें संयुक्त वर्णोका व सन्धिका अभाव पाया जाता है । यह विशेषता प्राकृत भाषाओसे मेल खाती है।
वैदिकमें वर्ण-संगठन, सन्धि संयुक्त व्यंजन-प्रयोग तथा विभक्ति-बाहुल्यका उदय हआ। क वर्गकी तीन श्रेणियाँ टटकर एक ही रह गयीं तथा च वर्ग और ट वर्गका समावेश नया हआ। विस्तारसे श और ष वर्ण भी नये आ गये। इस प्रकार वैदिक भाषाने भारोपीय भाषा-परिवार में अपना एक विशिष्ट स्थान प्राप्त कर लिया, जिसका काल ई. पू. १००० से १५०० के लगभग अनुमान किया जाता है।
भाषा-विज्ञानके इन सूविज्ञात तथ्योंका यहाँ वर्णन करना कुछ अप्रासंगिक-सा अवश्य प्रतीत होगा। किन्तु उनका यहाँ उल्लेख इस विशेष उद्देश्यसे किया गया है कि जिससे वैदिक भाषाके उत्तरकालीन प्राकृत भाषाओंमें विकासका इतिहास उसकी समचित पष्ठभमिमें समझा जा सके. और यह मानकर नहीं कि भाषाविकासका क्रम केवल वैदिकसे ही प्रारम्भ हुआ है। वस्तुत: अब वैदिक भाषा उक्त अन्तरराष्ट्रीय विकासशृंखलामें आदिकी नहीं किन्तु मध्यकी एक कड़ी बन जाती है। जब वेदोंकी रचना हो रही थी, तब उनके
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