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________________ ३१ प्रस्तावना रचयिता ऋषि व अन्य जन सामान्य बोलते तो वही भाषा थे, किन्तु बोली और साहित्यिक भाषाका भेद तो तब भी था । स्वयं ऋग्वेद ( १०, ७१, २ ) में कहा गया है कि - ' जैसे सूपसे सत्तू को परिष्कृत किया जाता है, वैसे ही बुद्धिमान् लोग बुद्धिबलसे परिष्कृत भाषाको प्रस्तुत करते हैं ।' बस, यहींसे प्रकृति परम्परासे व्यवहृत जन-भाषा प्राकृत और संस्कारसे परिष्कृत संस्कृतका भेद प्रारम्भ हो जाता है । भाषा के इन दोनों रूपों का उल्लेख वैदिक व उत्तरकालीन साहित्य में बराबर होता रहा है । कौशीतकी ब्राह्मणमें कहा गया कि 'उत्तर में बहुत विद्वत्तापूर्ण वाणी बोली जाती है - और शुद्ध वाणी सीखने हेतु लोग उत्तराखण्डको जाते हैं । तथा जो कोई वहाँसे सीखकर आता है उसे सुननेको लोग उत्सुक रहते हैं । यहाँ हमें स्पष्ट ही लोकभाषासे आगे बढ़कर उसके परिनिष्ठित मानक रूपके निर्माणकी सूचना मिलती है। रामायण ( किष्किन्धा काण्ड ) में शुद्ध भाषा सीखने हेतु व्याकरणके अध्ययन तथा अशुद्ध भाषण ( अपभाषित ) से बचनेकी बात कही गयी है । जब हनुमान् रामका सन्देश लेकर लंका में सीताके पास पहुँचे तब उन्होंने दैवी भाषा संस्कृतको छोड़ मानुषी भाषामें ही सीतासे बात करना उचित समझा । कालिदास ( कुमारसम्भव ) के अनुसार जब सरस्वती शंकर और पार्वती के विवाह के अवसरपर उनका तब उन्होंने दो प्रकारकी वाणीका प्रयोग किया । वरके साथ उन्होंने संस्कार युक्त सुख-बोध ( प्राकृत ) में वचनालाप किया । भरतादि नाट्य तथा काव्य व अलंकार तो विधिवत् दोनों प्रकारको भाषाओंके अपने-अपने देश - कालानुसार प्रयोगके नियम स्थापित किये हैं । अभिनन्दन करने आयीं ( संस्कृत ) और वधूसे शास्त्रोंके रचयिताओंने रामायण में जिसे 'अपभाषित' कहा गया है उसे भरतने विभृष्ट तथा भाष्यकार पतंजलिने 'अपभ्रंश' कहकर यह स्पष्टीकरण दिया है कि एक संस्कृत शब्द के अनेक अपभ्रंश रूप होते हैं, जैसे गौके गावी, गोणी गोता आदि । पाणिनिका संस्कृत व्याकरण सर्व प्राचीन और सुप्रसिद्ध है । उनके 'भूवादयो धातवः ' सूत्रपर उनके प्राचीनतम वार्तिककार कात्यायनने कहा है कि यह 'आणपयति' आदि धातुओंकी निवृत्तिके लिए सूत्र बनाया गया है। पतंजलिने 'आणपयति' साथ 'वट्टति' और 'वड्ढति' धातुओं के अतिरिक्त कृषके लिए कस् व दृश् के लिए दिसका उल्लेख किया है और शिष्ट प्रयोगमें उनसे बचनेका निर्देश दिया है । तात्पर्य यह कि उक्त दोनों महर्षियों, कात्यायन और पतंजलिके मतानुसार पाणिनिसे भी पूर्व आणपयति से प्रारम्भ होनेवाला कोई प्राकृत या अपभ्रंश धातुपाठ था जिसके स्थानपर पाणिनिने भूवादि धातुपाठका विधानकर शिष्ट प्रयोगकी प्रणालीको बल दिया । विद्वानोंने ऋग्वेदमें ऐसे अनेक शब्दोंका पता समयकी जन-बोली से ग्रहण किये गये प्रतीत होते हैं । ही समझायी हैं ( कीथ संस्कृत साहित्य XXV ) । लगाया है जो संस्कृत ढाँचेके नहीं हैं और जो उस यास्कने ऐसे शब्दों की निरुक्तियाँ प्राकृतके आश्रयसे दण्डीने अपने काव्यादर्शमें स्पष्ट कर दिया है कि उनके समय तक शास्त्रों अर्थात् व्याकरण शास्त्रों में संस्कृत के अतिरिक्त सभी प्रयोगोंको 'अपभ्रंश' कहा जाता था । किन्तु दूसरी ओर उन्होंने तथा भामहने वाङ्मय में संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश इन तीनों भाषाओंको समान स्थान दिया है । और यह भी कह दिया है कि आभीर आदि जन-जातियोंको भाषा अपभ्रंश कही जाती थी । और उसमें काव्य-रचना भी खूब होती थी । आभीरोंका उल्लेख मालव, यौधेय आदिके साथ समुद्रगुप्त ( ४थी शती ) की इलाहाबाद स्तम्भ प्रशस्तिमे आया है और वहाँ इन सभीको गुप्त सम्राट्के अधीन घोषित किया गया है । आभीरोंके अनेक शिलालेख भी मिले हैं, जिनसे वे पश्चिम भारतमें शक महाक्षत्रपोंके अधीन प्रतीत होते हैं । एक आभीर नरेश ईश्वरदत्तके चाँदी के सिक्के भी मिले हैं, जिनपर उसकी महाक्षत्रप उपाधि अंकित है और वे द्वितीयतृतीय शती के अनुमान किये जाते हैं। आभीर शिवदक्षके पुत्र राजा ईश्वरसेनका एक शिलालेख नासिकसे मिला है जिसमें वहाँ रहने वाले भिक्षुओंके औषधि उपचार हेतु दानका उल्लेख है । यह भी अनुमान लगाया जाता है कि सन् २४८ - २४९ से प्रारम्भ होनेवाला कलचुरी संवत् वस्तुतः इसी आभीर नरेशके राज्यारोहणसे प्रारम्भ हुआ था । सम्भवतः आभीर ईरानके निवासी थे तथा हिरात और कन्धार के बीच जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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