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प्रस्तावना
२९ तथा मारिदतके परिवार के भी पूर्व जन्मों का वर्णन जोड़ दिया है । अपने इस अन्तिम विस्तार के लिए उन्होंने कवि वत्सराजकी रचनाको आधार बनाया है । दुर्भाग्यतः यह रचना अभी तक उपलभ्य नहीं हुई । अन्य जो रचनाएँ प्रकाशित व अप्रकाशित उपलभ्य हैं उनका सूक्ष्म तुलनात्मक अध्ययन भी अनेक दृष्टियों से उपयोगी सिद्ध होगा ।
श्रीचन्द्र कृत 'कहकोसु' ( प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, अहमदाबाद, १९६९ ) का रचना - काल लगभग १०७० ई. है और इसकी कथाओंके विषय व क्रममें बहुतायत से हरिषेण कृत कथाकोपका अनुसरण किया गया है । इस सन्धि ३० में प्रस्तुत कथानकका आधार शिवार्य कृत भगवती आराधनाकी निम्न गाथाको बतलाया गया है जो वहाँ इस प्रकार उद्धृत है
मारेदि एगमवि जो जीवं सो बहुसु जम्म- कोडीसु ।
अवसो मारिज्जतो मरदि विधाणेहि बहुएहिं ॥ ( भ. आ. ८०२ )
श्रीचन्द्र ने इसको अपनी स्वीकृत शैलीके अनुसार संस्कृत गद्य टीकामें समझाया भी है, और कहा है, “अत्रार्थे यशोधराख्यानं कथ्यते । सुप्रसिद्धत्वाद् न लिखितम् ।" अर्थात् उक्त गाथार्थ के दृष्टान्तस्त्ररूप यशोधरका आख्यान कहा जाता है । किन्तु वह इतना सुप्रसिद्ध है कि उसके यहाँ लिखनेकी आवश्यकता नहीं । इस परसे दो बातें सिद्ध होती हैं । एक तो यह कि उक्त गाथाको समझाने में यशोधरकी कथा मौखिक रूपसे कहे जानेका प्राचीन कालसे प्रचलन था । और दूसरे श्रीचन्द्रके काल तक वह अनेक लोकप्रिय रचनाओंमें प्रचलित हो चुकी थी जिससे उसकी पुनरावृत्ति उन्हें अनावश्यक प्रतीत हुई। यह इस बातका प्रमाण है यह कथा उपलभ्य समस्त रचनाओंसे प्राचीन कालमें सुप्रचलित और लोकप्रिय थी ।
८. भाषा
परिवर्तनशीलता प्रकृतिका नियम हैं और भाषा इस नियमका अपवाद नहीं है । जिस प्रकार पृथ्वी के ही नहीं किन्तु चन्द्रमापर के कंकर पत्थर लाकर उनके विश्लेषणसे वैज्ञानिक उनके निर्माणकी प्राचीनताका पता लगाते हैं, उसी प्रकार भाषा-वैज्ञानिकोंने कुछ ऐसे तत्त्व और नियम पकड़ लिये जिनके द्वारा वे किसी भाषाके गठन, उसकी प्राचीनता, अन्य भाषाओंसे सम्बन्ध तथा विस्तार आदिका पता लगा लेते हैं । भाषाशास्त्री यह तो अभीतक नहीं जान पाये कि मनुष्यने भाषा बोलना कबसे प्रारम्भ किया । किन्तु वे इतना अवश्य सिद्ध कर चुके हैं कि भाषाके निर्माणमें प्रकृतिका योगदान केवल इतना ही है कि मनुष्य के कण्ठ व मुखके अन्य उपांगों की रचना ऐसी है कि उनके द्वारा वह असंख्य प्रकारकी ध्वनियाँ उत्पन्न कर सकता है । बस, इसी शक्तिको पाकर मनुष्यने नाना वस्तुओंके नामोच्चारण किये, विविधि क्रियाओं व घटनाओंको अलग-अलग ध्वनियों द्वारा प्रकट किया, और फिर अपने अन्तरंगके भावों व विचारोंको कह सुनाने की भी विधि निकाल ली । इस प्रकार भाषाका निर्माण मनुष्य के अपने प्रयत्न द्वारा हुआ ।
यह भाषा निर्माणकी प्रक्रिया भिन्न-भिन्न भूभागों में विविध प्रकारसे विकसित हुई । सैकड़ों नहीं, सहस्रों जन-समुदायोंमें जो बोलियाँ बोली जाती हैं उनके मौलिक तत्त्वोंका तुलनात्मक अध्ययन करके भाषा-वैज्ञानिकोंने अनेक भाषा-परिवारोंका पता लगाया हैं, जैसे भारोपीय भाषा-परिवार, सामी, हामी, मंगोली, निषाद व द्राविड आदि । इनमें भारोपीय परिवार अपने विस्तार, बोलनेवालोंकी संख्या, संस्कृति, प्राचीनता व साहित्य आदि दृष्टियोंसे विशेष महत्त्वपूर्ण है ।
भारतकी आर्यभाषाका प्राचीनतम रूप वेदों में प्राप्त होता है, और उसे यहाँ दिव्य अनादि- प्रवृत्त व अपौरुषेय माना गया था । किन्तु भाषाशास्त्रियोंने अब यह सिद्ध किया है कि वैदिक भाषाका वह रूप तीन-चार सहस्र वर्षों से अधिक प्राचीन नहीं है । उससे पुराने शब्द रूप उस कालके मिलते हैं जब भारतीय और ईरानी जन-समाज पृथक् नहीं हुए थे, और वह सम्मिलित समुदाय एक-सी बोली बोलता था । यह बात वैदिक और प्राचीन ईरानी अर्थात् पहलवी तथा पारसियोंके प्राचीन धर्म ग्रन्थ अवेस्ताकी भाषाओंके
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