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जसहरचरिउ
गन्धर्वने वह विषय प्रस्तुत रचनामें समाविष्ट किया है । मल्लिभूषण, ब्रह्मनेमिदत्त, श्रुतसागर और पद्मनाथ ( सम्भवतः उपर्युक्त पद्मनाभ ) इनकी रचनाएँ कारंजाके शास्त्र भण्डारोंमें हैं व मध्यप्रदेशकी संस्कृत-प्राकृत ग्रन्थ-सूचोमें उल्लिखित हैं । उपर्युक्त वासवसेनने प्रभंजन व हरिषेणका, प्रस्तुत ग्रन्थमें तीन प्रक्षेप प्रविष्ट करनेवाले कण्हड पुत्र गन्धर्वने वत्सराजका, तथा क्षमाकल्याण और माणिक्यसूरिने हरिभद्र मुनीन्द्रका उल्लेख किया है। यह अन्तिम कृति प्राकृतमें लिखी कही गयी है। कन्नड़में जन्नकवि कृत, तमिलमें वादिराज (?) कृत, हिन्दी में पण्डित लक्ष्मीदास कृत एवं जिनचन्द्र सुरि, देवेन्द्र, लावण्यरत्न और मनोहरदास कृत यशोधरचरितके उल्लेख पाये गये हैं। ब्रह्मजिनदास और ज्ञानदास कृत यशोधर-चरितके उल्लेख हैं किन्तु उनके विषय में यह निश्चय नहीं कि वे किस भाषामें लिखे गये। इनमें जिनका रचनाकाल ज्ञात हो सका है उनमें सबसे प्राचीन सोमदेव कृत यशस्तिलक ( ९५९ ई.) और सबसे पीछेकी क्षमाकल्याण कृत संस्कृत गद्यात्मक यशोधरचरित १७८२ ई. की है। तात्पर्य यह कि १०वीं शतीसे लेकर १८वीं शती तक कोई आठ सौ वर्षोंमें यशोधरकी कथा कवियों और श्रोताओंमें खूब लोकप्रिय रही।
इस समय मेरे सम्मुख सोमदेव कृत यशस्तिलक और पुष्पदन्त कृत जसहरचरिउके अतिरिक्त हरिषेण कृत बृहत् कथाकोष ( भारतीय विद्याभवन, बम्बई १९४३ ) भी उपस्थित है जिसमें कुल १५७ कथाएँ हैं और उनमें ७३वीं कथा यशोधर-चरित है जो ३०५ संस्कृत पद्योंमें पूर्ण हुआ है । इसका रचनाकाल ग्रन्थकी प्रशस्तिमें ही संवत् ९८९ व शक ८५३ दिया हुआ है जिससे वह सन् ९३१-३२ की रचना सिद्ध होती है । इस प्रकार ये तीनों रचनाएँ दशवीं शतीकी हैं व बहुत थोड़े वर्षोंके अन्तरसे लिखी गयी है । इनमें भी सबसे पहले हरिषेण कृत, दूसरी सोमदेव कृत और तीसरी प्रस्तुत रचना पुष्पदन्त कृत है। इनके बीच कथाका संकोच-विस्तार ध्यान देने योग्य है।
हरिषेणकी शैली पद्यात्मक होते हुए भी शुद्ध कथात्मक है। कथा अवन्ति देशकी उज्जयिनी पुरीके राजा कीोध ( यशोघ ) से प्रारम्भ होती है । वे वृद्धावस्थामें अपने पुत्र यशोधरको राज्य देकर मुनि-दीक्षा ले लेते हैं। यशोधरने अपनी पत्नी अमृतमतीका दुराचार अपनी आँखों देखकर वैराग्य लेना चाहा, और उसके लिए एक दुःस्वप्नका बहाना बनाया। किन्तु उनकी माता चन्द्रमतीने सच्चे नहीं तो एक कृत्रिम आटेके कुक्कुट का अपनी कुलदेवीको बलिदान देकर दु.स्वप्नकी शान्तिका निर्देश दिया। रानी सच्ची बात ताड़ गयी और उसने विष मिश्रित लड्डू खिलाकर माँ-बेटे दोनोंको मार डाला। वे उस कपट कुक्कुटके बलिदानके पापसे मयूर आदि सात जन्मोंमें पशु-योनिके दुख और कुमरणकी वेदना सहकर अन्तिम कुक्कुट योनिमें मुनि उपदेशसे लाभान्वित हो यशोमति-कुमारकी रानी कुसुमावलिके गर्भसे अभयरुचि और अभयमति नामक युगल भाई-बहिन उत्पन्न हुए । जाति-स्मरण होनेसे वे सुदत्त मुनि द्वारा क्षुल्लक-क्षुल्लिकाके व्रत लेकर मुनिसंघ सहित विहार करते हुए यौधेय देशकी राजधानी राजपुर में आये जहाँके राजा मारिदत्तने अपनी कुलदेवी चण्डमारीको प्रसन्न करने हेतु नरबलिका आयोजन किया था। नगरमें आहार निमित्त प्रविष्ट हुए उक्त भाई-बहिन राजपुरुषों द्वारा पकड़कर देवीके मन्दिरमें लाये गये। राजाने उनके रूप आदिसे प्रभावित होकर वृत्तान्त पूछा। उन्होंने अपना पूर्व वृत्तान्त कह सुनाया जिससे राजा-प्रजा व देवी सभीने मुनि सुदत्तसे अहिंसा व्रत ग्रहण कर लिया ।
इस कथाके घटना-क्रमको अधिक नाटकीय बनाने हेतु सोमदेवने कथाका प्रारम्भ यौधेय देश, राजपुर नगर, मारिदत्त नरेश और चण्डमारी देवीके मन्दिरसे किया है। राजा द्वारा वीरवैभव नामक कुलाचार्यके उपदेशसे विद्याधर लोक-विजयी करवालकी प्राप्ति हेतु नरबलिका आयोजन कहा गया है। माँ-बेटेके केवल तीन ही जन्मान्तरों मयूर-श्वान, मत्स्य और कुक्कुटका उल्लेख किया है तथा चन्द्रमति और मारिदत्तको चण्डमहासेनसे उत्पन्न भाई-बहिन कहा गया है। इस रचनामें कथा बहुत विरल एवं आलंकारिक वर्णन व धर्मोपदेशकी प्रधानता है।
__ प्रस्तुत ग्रन्थमें पुष्पदन्तने सोमदेवका ही अनुसरण किया है, यद्यपि उसमें नायक-नायिकाके हरिपेणके अनुसार सातों ही पशु-योनियोंका वर्णन किया है। इसमें कण्हड-सुत गन्धर्वने भैरवानन्द, यशोधरके विवाह
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