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________________ प्रस्तावना २७ पंजाब ही नहीं, मालवामें भी प्रायः यही अवस्था है। राजाको दुःस्वप्न हुआ तो उसकी उपशान्तिका उपाय पशुबलि ही है। देवों और पितरों तथा द्विजवरोंको तप्त व सन्तुष्ट करनेका एकमात्र उपाय है मत्स्य, अज भैसे आदिका बलि देकर मांस-भोजनका आयोजन । भारतीय प्राचीन संस्कृतिका यह अंग वैदिक कालसे प्रचलित होकर देश भरमें फैला और परिपुष्ट हुआ। यह ऋषि-परम्परा प्रस्तुत काव्यमें भलीभाँति चित्रित की गयी है । और इसके विपरीत वह मुनिपरम्परा भी यहाँ वणित है जिसके अनुसार उक्त हिंसात्मक प्रवृत्तियाँ धर्मका अंग नहीं, अधर्मकी द्योतक हैं; उनसे पुण्य नहीं पापकी उत्पत्ति होती है, एवं उनसे व्यक्तिका कल्याण नहीं, किन्तु बड़ा ही अहित होता है । जीवोंकी हिंसा करनेवालोंका यह जीवन तो बिगड़ता ही है, किन्तु उससे अधिक उनका परभव दूषित होता है । इसकी सिद्धिके लिए यहाँ यह स्थापित किया गया है कि प्रत्येक देहधारीका जोव या आत्मा विनश्वर शरीरसे भिन्न एक अमर और शाश्वत तत्त्व है जिसके साथ प्रत्येक व्यक्तिके अपने-अपने सुकृत या दुष्कृतके संस्कार जुड़ जाते हैं। इसे ही कर्मबन्ध कहते हैं और इसीके प्रभावसे जीव देव-योनि या नरक-योनिमें जाता है, उच्च मानवकूल प्राप्त करता है या नीच पशु योनियोंमें गिरता है एवं तदनुसार सुख-दुखका अनुभव करता है । इसके ही दृष्टान्तस्वरूप यहाँ यह विवरण पाया जाता है कि जीवके घातकी तो बात ही क्या, उसकी कल्पना मात्रसे जीवनका कितना अधःपतन होता है। उज्जैनका राजा यशोधर और उनकी राजमाता चन्द्रमती आटेका ही मुर्गा बनाकर देवीके आगे उसका बलिदान करते हैं। फलतः विषखाद्यसे उनकी मृत्यु होती है और वे दूसरे जन्ममें मयूर और श्वान, फिर नकुल और सर्प, पुनः मत्स्य और सुंसुमार, फिर दोनों अज, तत्पश्चात् अज और महिष और फिर कुक्कुटका जन्म पाकर कुत्सित रीतिसे मरते हैं। अन्तमें कुछ भले संस्कार प्राप्त कर वे उसी उज्जैनके राजकुलमें भाई-बहिनके रूप में उत्पन्न हो धार्मिक जीवनका अवलम्बन लेते हैं । ये ही दोनों तो वे क्षुल्लक और क्षुल्लिका हैं जो यौधेय देशकी राजधानी राजपुर नगरमें चण्डमारी देवीके सम्मुख राजा मारिदत्त द्वारा बलिदान किये जाने हेतु उपस्थित किये गये। मनुष्यका हृदय परिवर्तनशील है । यदि सुयोग प्राप्त हो तो भ्रान्त दृष्टि दूर होने और सच्ची दृष्टि प्राप्त करनेमें देर नहीं लगती। क्षल्लक-क्षल्लिकाके वृत्तान्तसे नरबलिमें विश्वास और श्रद्धान करनेवाले राजाको दष्टि बदल गयी। हिंसापर अहिंसाकी जीत हुई । इस विजयी धर्म व जीवन दृष्टिके लिए देखिए ४,८ आदि । प्रस्तुत कथानककी इसी विशेषताके कारण उसका गत एक सहस्र वर्षसे अधिक कालसे जैन समाजमें बड़ा सम्मान और प्रचार पाया जाता है। नैतिक जीवन में भारतीय संस्कृतिपर अहिंसा सिद्धान्तकी गहरी छाप पड़ी है और उसकी हिंसात्मक क्रियाओंको समाजके उत्कृष्ट वर्गसे प्रायः हटा दिया है। इस दृष्टिसे तथा प्रस्तुत कथानकके जन्म-मरण प्रसंगोंमें महाभारतमें उल्लिखित माण्डव्य ऋषिका कथानक ध्यान देने योग्य है। ऋषिने अपने पूर्व जन्म में कुतूहलवश एक तितलीके पंखमें काँटा छेद दिया था, जिसके फलस्वरूप उन्हें अगले जन्ममें शूलीपर चढ़नेका दुख भोगना पड़ा। यह कर्म सिद्धान्तकी मान्यता मगध आदि पूर्वीय भारतके प्रदेशोंमें तो उपनिषद् कालसे ही जड़ पकड़ गयी थी। कठोपनिषद्के अनुसार कि आत्माएँ अपने कर्म और ज्ञानके अनुसार वृक्षोंसे लेकर अनेक जीव-योनियोंमें जन्म धारण करती हैं। ७. कथाका विकास डॉ. वैद्यने अँगरेजी प्रस्तावनामें ऐसी २९ रचनाओंका उल्लेख किया है जिनका विषय प्रस्तुत काव्यके नायक यशोधरका चरित्र पाया जाता है । इनमें संस्कृतके अतिरिक्त प्राकृत, अपभ्रंश, कन्नड़, तमिल, गुजराती और हिन्दी भाषाओंकी कृतियाँ भी हैं। इनमें सोमदेव कृत यशस्तिलक ( ९५९ ई. ) और वादिराज कृत यशोधरचरित ( ९५० ई. के पश्चात् ) प्रकाशित हो चुके हैं। वासवसेन, सकलकीर्ति, सोमकीर्ति, माणिक्यसूरि, पद्मनाभ, पूर्णदेव, क्षमाकल्याण तथा एक और अज्ञात कवि कृत संस्कृत यशोधरचरितकी हस्तलिखित प्रतियाँ भण्डारकर शोध संस्थान, पूनामें सुरक्षित हैं। वासवसेन कृत यशोधर-चरित्र आठ सर्गों में है और उसके द्वितीय सर्गमें नायकके विवाहका वह वर्णन है जिसके आधारसे कण्हड नन्दन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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