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________________ २६ जसहरचरिउ लेखमें यौधेयोंका उल्लेख इस प्रकार आया है 'सर्व-क्षत्राविष्कृत-वीर-शब्द-नातोत्सेकाविधेयानां यौधेयानाम्...' अर्थात् रुद्रदामन्ने उन यौधेयोंपर भी विजय प्राप्त कर लिया था जो समस्त क्षत्रियोंमें अपनी प्रसिद्ध 'वीर' शब्दकी उपाधिके गर्वसे अपनेको अजेय मानने लगे थे। इस प्रकार यौधेयोंका यह पुरावृत्त और उनके सम्बन्धकी प्रस्तुत ग्रन्थमें निहित जानकारी महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक व परस्पर परिपूरक है । ६. दो दृष्टियाँ यौधेय देश ( पंजाब ) की राजधानी राजपुरकी दक्षिण दिशामें कात्यायनी ( चामुण्डा ) देवीका मन्दिर है। इस देवीका स्वरूप बड़ा विकराल है। उसके केश कर्कश और ऊपरको उठे हुए हैं । गुंजाके समान रक्त वर्ण तीन आँखें हैं जिनसे अग्निकी ज्वाला निकल रही है। विकराल कटारी जैसी डाढ़ें मुखसे बाहर निकल रही हैं और उनके बीच लपलपाती हुई जीभ रक्तसे लथपथ हो रही है। कपोल चर्बीके लेपसे चिकने हो रहे हैं। गलेकी नरमुंड-माला उरस्थलपर लटक रही है और स्तनोंपर सर्प लिपटे हुए हैं । करधनी भी भयंकर सर्पोकी ही बनी है जो पैरों तक लटक रही है। उसके चार हाथ हैं जिनमें चक्र, त्रिशूल, सर्प और खड्ग धारण किये हुए हैं। यह है उस देश-वासियों और उनके नरेश मारिदत्तकी कुलदेवी जिसकी पूजाकी तैयारी हो रही है । कोई सींग फॅक रहा है, तो कोई उत्तेजित होकर धनुषबाण ऊँचे कर रहा है । वे मयूर-पंखोंके वस्त्र धारण किये हैं और उनके मुखोंपर काली स्याही पुती है। कोई अट्टहास कर रहा है और कोई नाच रहा है । ढोलक-मृदंग भी बज रहे हैं। मत्स्य और मांसका खान-पान भी चल रहा है। पशुओंके रक्तसे समस्त प्रांगण लाल हो रहा है। हड्डियोंके चूर्णकी रंगावलि और पशुओंकी जिह्वाओं द्वारा सजावट की गयी है । पशुओंके वशाको ही तेल बनाकर दीपक जलाये जा रहे हैं । योगिनी, शाकिनी, डाकिनी नृत्य कर रही है इत्यादि। आज एक विशेष बलिदानका आयोजन है। सर्वशक्तिमान् कौल गुरु भैरवानन्दने राजाको बतलाया है कि यदि वे समस्त जलचर, थलचर और नभचर जीवोंके एक-एक जोड़ेका देवीके सम्मुख अपने हाथसे बलिदान कर दें तो उनकी खेचरत्व अर्थात् आकाश-गामिनी विद्याकी प्राप्तिको मनोकामना पूरी हो सकती है । भैरवानन्द कोई सामान्य पुरुष नहीं हैं। उनके सिरपर पंचरंगा कनटोपा लगा है, गलेमें जोगपट्ट पड़ा है और पैरोंमें पाँवडी पहनी हुई है। एक हाथमें बत्तीस अंगुल प्रमाण डंडा है जिसे वे दूसरे हाथमें लिये हुए सींग पर तड़ातड़ बजा रहे हैं और कभी उसे ऊपरको उछालकर हाथमें झेल रहे हैं। नगरमें घर-घर भिक्षा मांगते समय वे हंकार करते हैं, अपने कौल धर्म की शिक्षा-दीक्षा देते हैं और अपने माहात्म्यका भी र्णन करते हैं जो इस प्रकार है-मैं चिरंजीवी है और कभी बद्ध नहीं होता। चारों यग मेरे देखते-देखते ने नल, नहष, वेण और मान्धाता जैसे चक्रवर्तियोंको भी देखा और वह राम-रावणकी भिड़न्त भी देखी। मैंने युधिष्ठिरको भी देखा और वह भी तो मेरे सामने की घटना है जब दुर्योधनने कृष्णकी बात नहीं मानी। मैं चाहँ तो सूर्यके विमानकी यात्रा रोक , व चन्द्रकी चाँदनीको आच्छादित कर दूँ । समस्त विद्याएँ मुझे स्फुरायमान है और नाना मंत्र-तंत्र मेरे आगे-आगे चलते हैं । इत्यादि । ऐसे दिव्य ज्ञानी योगीकी बात भला कौन नहीं मानेगा। बस, भैरवानन्दके आदेशानुसार नाना प्रकारके पशु-पक्षियोंके युगल एकत्र किये जा चुके हैं। केवल एक शुभ-लक्षण-युक्त नर-मिथुनकी ही कमी है । इनकी खोजमें राज-पुरुष नगरमें घूम रहे हैं । उसी समय श्मशानमें ठहरे हुए मुनि-संघमें से एक क्षुल्लक और एक क्षुल्लिका आहारकी भिक्षाके लिए नगरमें प्रवेश करते हैं । राज-पुरुषोंकी दृष्टि उनपर पड़ी और वे उन्हें पकड़कर देवीके मन्दिरमें ले आये। राजा प्रसन्न होकर खडग हाथमें ले उनका शिरच्छेदन करनेको तैयार हो गया। यह उस देश और कालकी धार्मिक प्रवृत्तिका चित्रण है। चामुण्डादेवीका मन्दिर सबसे बड़ा धर्मायतन है । भैरवानन्द सबसे बड़े धर्मगुरु हैं और उनके आराधक अनुयायी समस्त राजा और प्रजा हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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