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प्रस्तावना
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यौधेयों तथा उक्त राजाका धर्म क्या था यह प्राच्य लेखोंसे भलीभाँति सिद्ध जाता है । यौधेयोंकी अनेक मुद्राओं पर 'ब्रह्मण्यदेव कुमार' ( स्कन्द - कार्तिकेय ) का नाम भी अंकित है व षण्मुख आकृति भी । उन्हीं सिक्कों की दूसरी ओर षण्मुखीदेवी की भी मूर्ति है जो स्कन्दकी पत्नी षष्टी या देवसेना भी मानी जा सकती है, अथवा स्कन्दकी माता कार्तिकेयी, कात्यायनी या चण्डी या मारी । महासेन नरेशने इसी देवीकी कृपासे प्राप्त अपने पुत्रका नाम 'मारिदत्त' रखा प्रतीत होता है । वे अपनी युद्ध - विजयको भी इसी देवीका प्रसाद मानते थे, क्योंकि अनेक मुद्राओं पर अंकित है " यौधेयानां जयमन्त्र - धराणाम्" अर्थात् यह मुद्रा उन tariat है जिन्हें विजयका मन्त्र प्राप्त है ।
प्रस्तुत कथानक में यौधेय नरेश महासेनकी पुत्री ( राजा मारिदत्तकी बहिन ) मालव नरेश यशोधको ही गयी थी । यद्यपि यशोघको यहीं उज्जैनका नरेश कहा है, किन्तु तीसरो- चौथी शती में मालवगण भी taraणके समान पंजाब में ही था और धीरे-धीरे अपना विस्तार राजस्थान व मध्यप्रदेशकी ओर कर रहा था । यौधेयोंके समान ही आयुधजीवीगण व इनके पड़ोसी होनेसे उनके परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध स्वाभाविक प्रतीत होते हैं ।
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इन सब परस्पर मेल खानेवाली बातोंपर ध्यान देनेसे कोई आश्चर्य नहीं जो प्रस्तुत कथानक उस कालकी नरबलि सम्बन्धी किसी सत्य घटनापर आधारित हो यह भी असम्भव नहीं कि नरबलि हेतु चुना गया नर- मिथुन यौधेय नरेशके निकट सम्बन्धी सिद्ध हुए हों, तथा नरेश व जनताके भाव - परिवर्तन में किसी जैन मुनिका हाथ रहा हो । इतिहाससे सिद्ध है कि इस युगमें उक्त यौधेय देश ( पंजाब ) में जैन मुनियोंका विहार व धर्म प्रचार सुप्रचलित था । इस सम्बन्ध में यहाँ एक उल्लेख ध्यान देने योग्य हैं । उद्योतन सूरि कृत 'कुवलयमाला' ( शक ७०० – ई. ७७८ ) में कहा गया है कि जब उत्तरापथको चन्द्रभागा ( चिनाव नदी ) के तटपर ( पंजाब में ) श्री तोरराज ( तोरमाण हूण - ५वीं शती) राज्य करता था तब उसके गुरु गुप्तवंशी हरिगुप्त को उसने अपनी राजधानी 'पवइया' में निवास करने के लिए राजी कर लिया । उनके शिष्य महाकवि देवगुप्त हुए और उनके शिवचन्द्र गणी जो जैन मन्दिरोंकी वन्दना के लिए भिन्नमाल ( राजस्थान ) में गये और वहाँ रहे । उनके शिष्य यक्षदत्त गणीके अनेक शिष्य सर्वत्र फैले और उन्होंने गुर्जर देशको जैन मन्दिरोंसे अलंकृत किया । पंजाब में तोरमाण आदि हूण नरेशोंका राजाश्रय पाकर जैनाचार्यका गुजरात व सौराष्ट्र तक धर्म-प्रचारकी सुविधाका एक ऐतिहासिक कारण यह भी कहा जा सकता है कि उस समय (सन् पाँचवीं छठीं शती में ) जिस मैत्रिक वंशका राज्य था वह डॉ. फ्लीट आदि विद्वानोंके मतानुसार हूण जातिकी ही एक शाखा थी । इससे उक्त कालमें पंजाबसे लेकर राजस्थान व गुजरात तक जैन मुनियोंके धर्म-प्रचारकी बात सिद्ध होती है । मारिदत्त यौधेयके समय जिस जैन मुनिके संघका पंजाब में विहार हुआ वे भी दीक्षासे पूर्व एक नरेश थे और उनका नाम सुदत्त था । पूर्वोक्त गुप्तवंशी गुरु-शिष्य परम्परामें यक्षदत्तका भी नाम आता है जो सुदत्तसे मेल खाता है । अतः प्रस्तुत कथानकमें एक सत्य जैन धर्म प्रचारकी घटना आधारभूत रही हो तो आश्चर्य नहीं ।
यौधेय जातिका राजनैतिक प्रभुत्व तो पाँचवीं शती के लगभग ही समाप्त हो गया, सम्भवतः गुप्तवंशीय साम्राज्य विस्तारके कारण । तथापि इस जातिकी परम्परा आज तक भी पंजाब में अक्षुण्ण बनी हुई है । वे लोग अब 'जोहिया' कहलाते हैं और सतलजके दोनों तटोंपर बसे हैं । इसीसे यह प्रदेश जोहियाबार नामसे प्रसिद्ध है । जोहिय राजपूतोंके तीन वर्ग पाये जाते हैं, लंगवीर ( लक्वीर ), माधोवीर ( मधेर ) और अदबीर ( अदमेर ) । यह वर्गभेद नया नहीं है । लगभग चौथी शतीके जिन मुद्रा लेखोंपर 'यौधेय - गणस्य जयः' अंकित है उनमें कहीं-कहीं 'द्वि' और 'त्रि' शब्द भी जुड़े पाये जाते हैं । विद्वानोंने इनका यही अर्थ लगाया है कि वे यौधेयोंकी द्वितीय और तृतीय शाखाओंके वाचक हैं और वे ही 'शाखाएँ वर्तमान उपर्युक्त तीन वर्गोंमें अभिव्यक्त हुई हैं । उन तीनोंके नामोंके साथ 'वीर' शब्द जुड़ा हुआ है । प्राचीन भारोपीय आर्य शाखा में 'वोरोस्' शब्द पुरुषवाचक था जो यूरोपीय भाषाओं में 'हीरो' नामसे प्रकट हुआ और भारतीय आर्य भाषा में 'वीर' के रूपमें । आश्चर्य कि द्वितीय शती के रुद्रदामन् के गिरनारवर्ती शिला
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