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________________ ४. १५. ११] हिन्दी अनुवाद १३३ यह मनुष्यका शरीर अस्थि-पंक्तिसे रचा गया है, चर्मसे ढंका है तथा शरीर दुर्गन्धसे भयंकर है । वह हर प्रकार वेसा हो घृणास्पद है जैसा किसी चाण्डालका घर ॥१३॥ १४. अशुचित्व भावना हृदय, रक्त, पित्त, मस्तिष्क, अन्त्रावली व शुक्र, इनके संगमसे उत्पन्न हुआ यह सप्त धातुमय अशुद्ध मानव शरीर रजति, नीर और क्षीरके मिश्रणसे उत्पन्न हुए कर्दमके समान है। इसके अन्तरंगको दुर्जय कामने मलिन बना दिया है। यह काम मर्यादाहीन होकर मन में निवास करता है। क्रोध मनुष्यको दूसरे जीवोंको बांधने वा मारनेके लिए प्रेरित करता है। मान उद्भट दपं है और लोभ असन्तुष्टिका कारण है, तथा मनुष्यको बुद्धिको मदिराके समान विवेकहीन बनानेवाला मोह है। माया कषाय दूसरोंका धोखा देनेके लिए प्रेरित करता है और शोक मनुष्यसे हाहाकार व चीख-पुकार कराता है । मदिरा पीकर उन्मत्त हुए बिना ही मनुष्य अपने कुल, बल और लक्ष्मीके मदसे फूटी-आंख ( अन्धा) बनकर कुछ भी नहीं देखता-विचारता। प्रेम-पाशसे बँधा हुआ मनुष्य लज्जाका पात्र बन जाता है, क्योंकि स्नेह भी अनर्थके विस्तारकी परम्पराको जन्म देता है । निद्राके वशसे जड़ हुआ मनुष्य अपना हिताहित नहीं जानता। तृष्णाके वशीभूत होकर वह पीनेक अयोग्य जलको भी मांगने लगता है । क्षुधा समस्त शरीरमें दाह उत्पन्न करके मनुष्यको चाण्डाल के घरमें भी भोजनके लिए प्रविष्ट करा देती है । नेत्र रमणीके ( रूप ) सौन्दर्यमें रमण करते हैं और जिह्वा मिष्ठान्नकी इच्छा करती है । घ्राणेन्द्रिय शीघ्र ही सुगन्धकी ओर दौड़ जाती है। तथा कोमल शैय्याका स्पर्श तृप्ति उत्पन्न करता है। दोनों कान संगीतको ध्वनिसे उस ओर दौड़ पड़ते हैं, और फिर मन तो वन-मरकट ( जंगली वानर ) के समान चपल है। प्रतिदिन ही मुखसे असत्य वचन निकलता है, तथा हिंसा करनेके लिए हाथ भी शस्त्रपर जा पड़ता है। चरणयुगल भी पाप-पथपर प्रवृत्त हो जाता है, तथा कवि भी कविता करता है तो शृंगार-विषयक । कुतर्क व प्रलापयुक्त भाषण करना पाण्डित्य कहलाता है, और सुभटता तो पापोंको राशि ही है, ऐसा जानो। शेशव काल अबोधपूर्ण है तथा नवयौवनको प्राप्त हआ मनुष्य अपनी प्रेयसीके विरहमें श्वासे भरता हुआ घूमता-फिरता है, एवं वृद्धत्व तो मृत्युकी साँसे भरता हुआ कराल कालके निकट हो पहुँचा देता है ॥१४॥ १५. आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म व बोधि भावनाएँ ___काम और भोग कंचुकी हैं। रत्नमयी भूषण और वस्त्रादि मदविभूति हैं। रोग यमके भृत्य हैं, तथा मुख मुद्रित मूर्छा मृत्युको दूतो है। मिथ्यात्व, कषाय और असंयम तथा इन्द्रियोंके विषयोंके सेवनसे जीवके कर्मोका आस्रव होता है। इस आस्रवका संवर ( रोक ) सम्यक्त्वसे, जीवोंके ऊपर दयाभावसे तथा इन्द्रियासक्तिके त्याग द्वारा करना चाहिए। बंधे हुए कर्मोंकी निर्जरा (क्षय ) उन श्रेष्ठ मुनियों द्वारा की जा सकती है, जो दृढ़तासे व्रतोंका पालन करते हैं, बारह भावनाओंका चिन्तन करते हैं तथा समताभावका अभ्यास करते हैं। यह बारह प्रकारके तप करने तथा नित्य नये निर्वेदभाव ( संसारके प्रति विरक्तिभाव ) द्वारा की जाती है। भव्य पुरुषको धर्मका अर्जन करना चाहिए और इस धर्मको उत्पत्ति होती है अत्यन्त दुस्सह क्षमारूपी मार्गसे, अत्यन्त मार्दव और आर्जवभावसे तथा सत्य, शौच एवं समस्त परिग्रहके संग्रहके त्यागसे एवं ब्रह्मचर्य से । जिनेन्द्रके गुणोंकी सम्प्राप्ति रूप समाधि और बोधि (ज्ञान ) की भी खोज करना चाहिए, जिसके द्वारा जरा और मरणरूपी व्याधियां दूर होती हैं। इतना उपदेश देकर सुदत्त मुनिने अभयरुचि कुमारसे कहा कि तुम अभी शीघ्रतामें मुनिदीक्षा ग्रहण मत करो, जब तक कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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