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सन्धि ४ चण्डमारि-मारिदत्तादिका धर्मलाभ
जिन्होंने अपने निरन्तर दानसे वन्दीवृन्द को सन्तुष्ट किया है, जो दारिद्रयरूपी रौद्र हस्तीके कुम्भस्थलोंका विदारण करने में दक्ष हैं, तथा जो पुष्पदन्त कविके काव्यरससे संतृप्त हुए, वे नन्न नामक श्रीमान् जगत्में सदा आनन्द करें।
१. राजा यशोमतिका पश्चात्ताप अभयरुचि क्षुल्लक राजा मारिदत्तसे कहते हैं कि मेरे इन दुःखसे भरपूर जन्म-जन्मान्तरोंके चरित्रको सुनकर यशोमति राजाका हृदय विचलित हो उठा। उनके हृदयमें इतना शोक-रस दौड़ गया कि वह उनके अंगमें नहीं समाया और वह नेत्राश्रुओंके रूप धार लगाकर बहने लगा। वह राजा मुनिराजके चरणकमलोंमें लोट गया और बोला-हाय-हाय, इस भुवनतलमें वह बड़ा निर्दय है, जिसने मेरे पिताका घात किया। अब आज ही में अपने पापरूपी वैरीका संहार करता हूँ। लो अब मैं किसीके साथ वैर-भाव नहीं रखूगा। केवल आटेके बने कुक्कुटका बलि देनेसे व मनमें दुष्कर्मको भावना करनेसे मेरे गुरुजनोंने इतना दुःख पाया। धिक्कार है इस चर्म-चक्षुओंसे दिखने वाले मनुष्यपनको। मैंने अपने बापको भी नहीं पहचाना और अधर्मको धर्म मानते हुए मैंने जन्मजन्ममें उनका घात कराया। जहाँ ऋषि गुरु नहीं और जिनेन्द्र देव नहीं उस कुल में जीवोंके प्रति दया और विवेक कहाँ ? जहाँ वनचर जीवोंके समहका घात कराया जाता है. वहां परभवमें स्थित अपने बन्धका भी हनन हो जाता है। मैंने जितने जीवसमहोंका घात किया है. उनको कौन देख सकता है ? हे मुनिके चरणकमलोंमें संलग्न-चित्त और मेरे कल्याणमित्र वणिग्वर, अब मैं अपने सिंहासन, छत्र, श्रेष्ठ वाद्य, विविध ध्वज और चमर, रथ, हाथी, श्रेष्ठ तुरंग, और योधाओंकी सेनाएं, इन सबसे हाथ जोड़ता हूँ अर्थात् इनका त्याग करता हूँ॥१॥
२. राजाके वैराग्यसे अन्तःपुरकी व्याकुलता राजा यशोमति कहते हैं कि अब इन सब राजसुखोंको अभयरुचि कुमार ले लें और उनका उपभोग करें। हे वणिग्वर, मुझे दीक्षारूपी प्रसाद प्रदान करें, ऐसा तुम पूज्य मुनिराजसे कहो । जो कदली-कन्दलके समान सुकुमार देह, बालमृगनेत्री मेरी अभयमति नामक कुमारी पुत्री है, उसका पाणिग्रहण शत्रुओंका मर्दन करनेवाले अहिछत्रके अधिपतिके कुमार पुत्रसे करा दिया जाय । इसी समय नगरमें बात फैल गयी। लो, राजाकी आखेट-यात्रा अच्छी सिद्ध हुई। राजाको धर्मलाभ मिल गया। उन्हें तपश्चर्यापर प्रेम हो गया है। तभी सघन और रम्य प्रेमको जानने वाली
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