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________________ हिन्दी अनुवाद ४०. जन्मान्तर वर्णन चालू वह तेरे पिताकी जननी सिप्रा नदी में भयंकर सुंसुमारके रूपमें उत्पन्न हुई। उसके द्वारा तेरी कुब्जा दासी के मारे जानेपर तूने उसे मरवा डाला । जिस रोहित मत्स्यको वेदमें कहे अनुसार भट्टों और पुरोहितोंको देकर खिलाया गया वह स्वयं तेरा बाप ही था, जिसे तूने ही सन्तापित किया और प्रहार कर-करके क्लेश पहुँचाया। फिर वह तेरी आजीका जीव बकरी हुआ और तेरे पिताका जीव उसीका पुत्र बकरा हुआ, जो अभी भी अपने पापोंके पटलसे संछादि था। जब वह युवा होकर अपनी ही मातापर आरूढ़ था, तभी उसे यूथ-नायक बकरे अपने तोक्ष्ण सींगोंसे छेद डाला और वह वहीं मर गया । उसका जीव भी उसी बकरीके गर्भ में गया जहाँ उसका वीर्यबिन्दु पहुँच चुका था । इस प्रकार मैंने मेरे द्वारा ही अपनेको अगला जन्म दिया । जब में अपनी माताके गर्भ में भंगुर अंगों सहित शरीर संकुचित किये स्थित था, तभी जब तेरा मृग मारने का आखेट सिद्ध न हुआ तब, हे नरेश, तूने ही आकर उस बकरीको अपने बाणसे वेध दिया। इससे अपनी प्रिय माताका पेट दो टुकड़े हो गया और तूने उस गर्भस्थित छौनेको जीवित देखा । तूने उसे अपने धनिकको दे दिया । उसने उसकी रक्षा को और घर ले आया । फिर जब माँसका भोजन किया गया तब तूने उसका पैर काटकर अपनी माताको जो उसीकी पूर्वजन्मकी पत्नी थी, खिलाया 17 वह अजा जो, हे राजन्, तेरे ही बाणसे आहत होकर मरी थी, वह अपने ही कुकर्मो के मार्ग से जाकर सिन्धुदेश में क्षय ( काल ) रूप विकराल महिष हुआ । क्या तू नहीं जानता कि वही तो तेरे घोड़ेका यमदूत हुआ था, जिसे तूने ही उसके उदरके नीचे अग्नि : जलाकर कराहते हुए पकवाया था । वह महिष तेरी आजी ही तो थी । हमारी वाणी कभी चूकती नहीं । तु स्मरण कर उस अजका और उस महिषका, जब तूने पितृपक्ष में उन्हें काट-काटकर विप्रोंको खानेके लिए दिया था ||४०|| I ३. ४१.१३ ] ४१. जन्मान्तर कथनको समाप्ति इस प्रकार वे दोनों मरकर कुक्कुट पक्षीकी योनि में उत्पन्न हुए और नन्दनवन में उनका शब्द सुनकर तूने ही उन्हें अपने बाणसे भेद दिया । वहाँसे मरकर वे दोनों अनुपम लावण्ययुक्त होकर रानी कुसुमावली के गर्भ में उत्पन्न हुए। इस प्रकार, हे बाबू, वे दोनों संसारकी भ्रमण यातनाको सहते हुए अभयमति और अभयरुचि कुमारके रूपमें प्रकट हुए और वे अब उनके पुण्यबन्धका प्रारम्भ होनेसे तेरे प्रिय शिशुओंके रूपमें तेरे घर में ही विद्यमान हैं । जो अमृतमती देवी तेरी माता थी, वह भीम निशाचरीके समान मांसभक्षी थी, नाना गुणोंके धारी महर्षियोंकी निन्दा करती थी, कुगुरु और कुदेवोंके चरणोंकी वन्दना करती थी, जिसने मत्स्यको जीते-जीते ही तलवाकर भोजन के समय विप्रोंको दिया था और स्वयं भी खाया था तथा जिसने मद्य भी पिया था और अपने जारके हेतु पतिको मार डाला था, वह अस्थिको गला देनेवाले कुष्टसे गल-गलकर अत्यन्त रौद्र ध्यान से मरकर पाँचवें नरकको गयी । वही पापिनी तो यशोधर राजाकी गृहिणी थी। अपने दुष्कर्मसे नरकके बिलमें पड़ते हैं, हितकी बात कहनेपर उसको तुच्छ गिनते हैं । श्री पुष्पदन्त कवि कहते हैं कि ऐसे वे मूढ़ लोग होते हैं जो जिनेन्द्र के धार्मिक वचनको नहीं सुनते ।४१। इति महाकवि पुष्पदन्त विरचित महामन्त्री नन्नके कर्णाभरणरूप यशोधर महाराजमहाकाव्य में यशोधरको मनुष्य जन्मलाभ नामक तृतीय संधि परिच्छेद समाप्त ॥ ३ ॥ चरित नामक Jain Education International ११७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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