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________________ ३. ३९. १८] हिन्दी अनुवाद ११५ विरक्ति उत्पन्न हो गयी। तब वे जीवन और धनके आशारूपी बन्धनको छोड़कर एवं जीणं तृणके समान अपने राज्यका त्याग कर महर्षि होकर गहन पर्वतमें जा रहे। हे यशोमति राजन्, अब आप अपने क्रोधका शमन करके इनके चरणयुगल में प्रणाम कीजिए तथा हाथ जोड़कर ऋषिके मुखका दर्शन कीजिए। कल्याणमित्रका यह वचन राजाके कानोंको बहुत अच्छा लगा, और उन्होंने बड़ी भक्तिसहित गुरुको वन्दना की। जब जीवोंके साथ मैत्री-भाव रखनेवाले उन मुनिराजने भी राजाको आशीर्वाद देते हुए कहा-तुम्हें धर्मलाभ होवे तथा वात्सल्यभावसे मधुर शब्दोंमें भाषण किया, तब राजा अपने हृदय में विचार करने लगा-ये मुनिराज तो मन्दर पर्वतके समान अचल और धीर हैं । गम्भीरतामें साक्षात् रत्नाकर तथा तेजमें स्वयं चन्द्र और दिवाकर हैं। ऐसा ज्ञात होता है, जैसे मानो संयमको एकत्र करके स्थापित किया गया हो, मानो उपशम मुनिवेशमें उपस्थित हुआ हो, अथवा जैसे तपस्याकी शक्तिके माहात्म्यका सार ही हो, या जिनेन्द्रभक्तिका आवास हो। वे ऐसे हैं जैसे मानो दयारूपी लताके क्रीडापर्वत हों, अथवा क्षमारूपी विशाल पद्मिनीके सरोवर हों। ये मुनिराज तो बड़े ही साधु, पवित्र और सन्त हैं, और मुझ पापोने इन्हें मारनेका प्रयत्न किया। अब मैं अपने इस दुष्कर्मका प्रायश्चित्त अपना सिर काटकर करूंगा। राजाके इस विवारको मुनीश्वरने समझ लिया और उन्होंने श्रवणसुहावने वचन कहे ॥३८॥ ३९. मुनि द्वारा राजाके पूर्वजोंके जन्मान्तरोंका वर्णन मुनिने राजाके हृदयकी बात जानकर कहा-हाय-हाय, नरेन्द्र ! यह तुमने क्या विचार किया ? अपने भ्रमरपुंजके समान श्याम केशोंसहित सिरका खण्डन मत करो। दुष्कर्मों की मलिनता तो निन्दन और गहण द्वारा नष्ट की जा सकती है। इसपर राजाने कहा-अरे, मुनिने मेरे मनको गप्त बातको कैसे देख लिया और उसे कह दिया? मझे बताओ कि उन्होंने मेरा हृदय कैसे समझ लिया ? इसपर उस सेठने कहा--समताभाव रखनेवाले परमेष्ठो लोक और अलोक सम्बन्धी जिस बातको चाहें उस बातको कह सकते हैं। आप मुनिवरसे पूछकर देख लीजिए। इसपर राजाने उन जगत्के सूर्य ऋषिको नमस्कार करके पूछा-हे मुनिराज, मेरा पिता यशोधर अपनी मातासहित मरकर कहाँ गया है ? जिनके यशकी कीर्ति सब ओर फैली हुई है वे यशोध महाराज अब कहाँ हैं ? इसपर उन मुनिराजने कहा-तुम्हारे पितामह यशोष तो अपने श्वेत बालोंको देखकर एवं तुम्हारे पिताको कूलकी राजलक्ष्मी सौंपकर और दुर्धर तप करके मद और भयका विनाश कर देव-लोकको चले गये। और तुम्हारे पिता राजा यशोधर, जिन्होंने तुम्हारे युवराजपट्ट बन्धनके अवसरपर समस्त परिजनों व स्वजनोंको आनन्द उत्पन्न किया था, वे पीठ (आटे) से बने कुक्कुटका घातकर और कुलदेवीके सम्मुख बलि चढ़ाकर यहीं माता और पत्र दोनों विषभोजन द्वारा मारे जाकर पंचत्वको प्राप्त हए। हे राजन, वे अपने अगले जन्म में मयूर और श्वान हए । जीव अपने पापोंका इस प्रकार फल पाता है। श्वानने जिस मयरको मारा उसे तू अपना पिता जान और तुम्हारे द्वारा फलकसे जिसका मस्तक फोड़ा गया था और वह धराशायी हो गया था वह सारमेय ( श्वान ) तुम्हारी आजीका ही जीव था, ऐसा जानो। इस प्रकार जीवोंके जीवनका लेन-देन होता है। तत्पश्चात् तुम्हारा वह पिता सर्पशत्रु अर्थात् नकुल हुआ और उसकी माता हुई भयंकर सर्प। उस भयंकर नकुल द्वारा सर्प खा लिया गया और फिर स्वयं तरक्षके द्वारा मारा गया ॥३९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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