________________
३.२५.६ ]
हिन्दी अनुवाद
२३. जीव-स्वभावकी विशेष व्याख्या यदि जीव ध्रुव अर्थात् सदैव एक रूप तथा लोकप्रमाण निश्चल और क्रियागुणसे रहित हो तो उसके भीषण भवभवान्तरोंमें अजित कर्मबन्ध कैसे हो सकता है ? और फिर बन्धके बिना गुरु और शिष्य तथा तपस्वोपन कैसे घटित हो सकता है, बाबूजी! यदि जीव सर्वथा शुद्ध है, तो उसके अंगमें रज और तम नहीं लग सकता। तथा वह स्वर्ग और मोक्षको कामना किस कारणसे करेगा? जीवके बिना शरीर अपनी शैय्यापर मदनकी वेदनाजन्य स्त्रीका स्पर्श अनुभव कैसे करेगा ? बिना जीवके जीभ कैसे किसी वस्तुके गुण पहचानेगो और नाना प्रकारके विशेष रसोंको कैसे चखेगी ? बिना जीवके तो नेत्र अपने आगे खड़े हुए वैरियों और मित्रोंको नहीं देख सकते। बिना जीवके केशरका आदर कौन करेगा? और घ्राणेन्द्रिय कहीं भी गन्धको कैसे पहचानेगा? जीवके बिना कान सुन नहीं सकता तथा शुभ और अशुभ शब्दका कोई भेद नहीं कर सकता। बिना जीवके पाँचों तत्त्व सर्वथा निश्चेष्ट हैं। और उन्हींके द्वारा कौलमार्गके आचार्योने समस्त सृष्टि होनेका उपदेश दिया है। अज, हरि, हर, ईश्वर तथा शिव ये नाम स्पर्श आदिक इन्द्रियों द्वारा उनके नाना गुणोंसे ग्रहण किये जानेके पात्र हैं। जीवमें न तो स्पर्श है, न रस, न रूप और न गन्ध । वह शब्दसे भी रहित है। परन्तु वह अपनी पांच इन्द्रियों द्वारा इन पाँचों गुणोंको जानता है । ऐसा मैंने सुना है ।।२३।।
२४. जीवके बिना शरीरको प्रवृत्तियाँ असम्भव सुरगुरु अर्थात् बृहस्पतिके मतसे जो कुछ नेत्रों द्वारा देखा जाता है, वही समक्ष है। वह अपने घर में पूर्वपुरुषों द्वारा गड़ा कर रखे हुए धनके घड़ेको नहीं देख सकता। जो वाणीसे कुण्ठित है, मूक है, अत्यन्त अभिमानी है व विषय और कषायों तथा राग-रसोंका लम्पट है, वह बादर ( स्थूल ) और सूक्ष्म, दूर व तिरोहित द्रव्योंको कसे स्पष्ट जान सकता है ? वह गाता-बजाता, नाचता, खेलता, कामिनीके सघन स्तनोंका हाथसे मदन करता, शत्रुसेनाको हूलता, शूलता और फाड़ता तथा खेतों, ग्रामों व नगरोंको जलाता हुआ क्या सचमुच में समझता है कि यह पाप कर्म है ? क्या वह किसीसे भी करुणापूर्वक बोलता है ? यदि देहरहित होते हुए किसीने सिद्धान्तका प्रतिपादन किया, तो लो, मुझ बन्ध्याके पुत्रने, कूर्मरोमोंके बने कम्बलसे आच्छादित होकर एवं आकाश कुसुमोंसे मण्डित होकर ये सब बातें कहीं हैं। सच बात तो यह है कि जो निष्कल है (कलाओंसे हीन ) वह न उत्पन्न होता, न मरता, न सृष्टिको उत्पन्न करता, न धारण करता और न विनाश करता। निष्कल होता हुआ अरूपो परमेष्ठो प्रभु इस भव-संसार में संसरण नहीं करता ॥२४॥
२५. अन्य दर्शनोंपर आलोचनात्मक विचार इन्द्र, प्रतीन्द्र, चन्द्र, नाग, नर तथा खेचरों द्वारा पूजित एक सहस्र आठ शुभ लक्षणोंका धारक केवलज्ञानरूपी नेत्रसे ही समस्त लोकको देखनेवाला, अष्ट प्रातिहार्यका निर्मल चिह्नधारी, * जैसे मानो चन्द्रमा उदयाचलपर स्थित हो, धर्मचक्र द्वारा लोगोंके मनोगत मलिन भावोंको दूर
करनेवाला, वीतराग तथा मुनिवरोंमें श्रेष्ठ मुनि, ऐसा सकल परमात्मा होता है। उन्हींके द्वारा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org